सम्पादकीय 04 जुलाई

Posted on 04-Jul-2015 11:52 AM




वेश की पूजा: विश्वास की रक्षा

एक डाकू साधु के वेश में रहता था। उसके हाथ में हमेशा एक माला होती थी, जिसे वह फेरता रहता था। डकैती में मिला अधिकांश धन वह गरीबों में बांट देता था। 

एक दिन व्यापारियों का एक समूह डाकुओं के ठिकाने के पास से गुजर रहा था। सभी व्यापारियों को डाकुओं ने घेर लिया। नजर बचा कर एक व्यापारी अपने धन की थैली लिए भागा और एक तम्बू में जा घुसा। वहाँ उसने देखा-एक साधु माला फेर रहा है। उसने साधु से शरण माँगी और डाकुओं से बचने वास्ते धन की थैली उसे सँभला दी। उस साधु ने व्यापारी का कहा-’थैली एक कोने में रख दो और निश्चिन्त होकर जाओ।’ जैसे ही डाकू व्यापारियों को लूटकर चले गए, तो निश्चिन्त हो वह व्यापारी अपनी थैली लेने वापस साधु के तम्बू में पहुँचा। वहाँ का दृश्य देख कर वह आश्चर्यचकित रह गया।

उसने देखा कि वह साधु तो उसी डाकू टोली का सरदार बना बैठा है और लूटे गए धन का अपने दल के डाकुओं में बँटवारा कर रहा है। घबराया व्यापारी हताश होकर वापस जाने लगा-थैली माँगने की हिम्मत तो कब की काफूर हो चुकी थी। जैसे ही साधु की नजर व्यापारी पर पड़ी, उसने उसे आवाज लगाई और कहा-’भीतर आओ। तुम्हारी थैली जहाँ रखी गई थी वहीं पड़ी है, ले जाओ।’ आश्चर्यचकित व्यापारी ने देखा -  थैली वहीं पड़ी है और धन सुरक्षित है। वह थैली लेकर बाहर आ गया।

उपस्थित डाकुओं ने पूछा कि हाथ आया धन वापस क्यों दे दिया ? इस पर साधु ने जवाब दिया-’वह व्यापारी मुझे भगवान् का भक्त और ईमानदार साधु समझकर मेरे पास अपना धन सुरक्षा के भरोसे सौंप गया था। भगवान् को प्रसन्न करने वाले मेरे इस वेश पर उसकी आस्था थी। मुझे भी इस वेश के प्रति सद्भावना की रक्षा करनी चाहिए। इसी कर्तव्य-भावना से थैली लौटाकर मैंने इस वेश की पूजा की है और व्यापारी के विश्वास की रक्षा की है, न कि उसके धन की।’


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