सम्पादकीय 10 अगस्त

Posted on 11-Aug-2015 01:55 PM




चक्रवर्ती सम्राट को पुण्योपार्जन का शौक कुछ ऐसा लगा कि प्रजा से पुण्य खरीदने लगे! ऐसी तराजू बनाई गई जिसमें किसी के पुण्यों के लेखों का कागज एक पलडे़ में रखते ही दूसरे पलडे़ में उसके बराबर स्वर्ण मुद्राएं तुल जाती!
विधि ने अपना काम किया, पड़ौस के राजा ने आक्रमण किया, परिणाम में हार मिली चक्रवर्ती सम्राट को! रानी, पुत्र सहित उन्हें रात्रि के अंधेरे में भागना पड़ा! पर, खाने को कुछ नहीं था- साथ! पड़ौसी राज्य में जाकर कुछ मेहनत की, जिससे एक समय की भोजन सामग्री नसीब हुई। रानी भोजन बना ही रही थी कि एक भिखारी ने दयनीय स्वरों में याचना की- भोजन की! सम्राट द्वारा याचना को विनयपूर्वक अस्वीकार करते देख रानी ने कहा- राजन् यदि एक दिन और भूखा रह जायेंगे हम तो इस भूखे का पेट भर जायेगा..... दे दीजिये इसे भोजन!
कुछ दिनों की कठिन यात्रा के बाद राजा ने अत्यन्त चिन्तित होकर रानी से कहा ’’अब आगे का जीवन कैसे चलेगा? रानी ने सुझाव दिया ’’ अपने कुछ पुण्य यहाँ के नरेश को बेचकर हम कुछ स्वर्ण मुद्राए लेकर सुखी जीवन जी सकते हैं! राजा को बात अच्छी लगी! सम्राट ने वहाँ के राजा के पास अपनी बात रखी, तो वे तैयार हो गये, पर यह क्या? सम्राट ज्यों-ज्यों पुण्य का लेखा तराजू में रखते पर पलड़ा हिलता तक नहीं!  सभी ओर से घेरती निराशा के बीच रानी को भिखारी को दिया भोजन याद आया, तब लेखा पर्ची पलड़े में पड़ी तो दूसरी ओर सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएं आ गई- पलड़े में। सम्राट ने तुरन्त जान लिया कि वास्तव में पुरूषार्थ द्वारा अर्जित राशि का दान ही सार्थक है!
आदरणीय महानुभावों, आपश्री द्वारा भी जो कठोर परिश्रम द्वारा धन रूपी लक्ष्मी का दान नारायण सेवा संस्थान को दिया जा रहा है, वह ऐसा ही दान है। आप द्वारा दिए गये दान से पशुवत चलने वाले अपने पांवो पर खडे़ हो रहें हैं, जिनके मां-बाप नहीं है ऐसे बच्चे सुसंस्कारी एवं विद्या दान अर्जित कर रहें हैं, बेसहारा एवं गरीब बहिनें स्वावलम्बन का प्रशिक्षण प्राप्त कर रही है, वनवासी क्षेत्र के अभाव ग्रस्त दीन हीन बीमार औषधि प्राप्त कर रहें हैं- घर बैठे। सैकड़ों परिवार आजीवन व्यसन मुक्त होकर सभ्य एवं सुखी ग्रहस्थ जीवन जी रहें हैं।
आइए, हम भी प्रण लें कि जब तक कुछ भी देने की सामथ्र्य परमात्मा बनाये रखेगा तब तक किसी जरूरतमन्द को निराश नहीं लौटने देंगे! 


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