संपादकीय

Posted on 14-May-2015 02:03 PM




हमारे विभिन्न शास्त्रों के सूत्र, आचार्यो की सीख, सन्त-महात्माओं के सन्देश बार-बार इस बात पर बल देते है कि हमें सदा धर्म का आचरण करना चाहिए। तो, हमारे मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि, धर्म क्या है ? धर्म का स्वरूप क्या है ? वैसे तो इन प्रश्नों का उत्तर सरल सहज बोधगम्य शब्दों में भी दिया जा सकता है, और विशद्-गम्भीर शास्त्रीय भाष्य शैली में भी।
    परन्तु, हमारा आशय तो केवल धर्म के उस आचरण से है, जिसे सामान्य जन समझ सके और तदनुसार अपने व्यवहार में ला सके। एक बात तो मौलिक रूप से सर्व स्वीकार्य है कि जिस व्यवहार से, जिस आचरण से, जिस कर्म से किसी अन्य को पीड़ा हो, कष्ट हो, असुविधा हो - ऐसा आचरण और व्यवहार कभी धर्म सम्मत नहीं कहा जा सकता। 
    अतः इस बारे में सदा सतर्क एवं जागरूक रहने की आवश्यकता है कि हम मन-वचन-कर्म से कभी भी ऐसा कुछ नहीं करें जिससे किसी को तकलीफ होती हो, भावनाओं को चोट लगती हो, किसी के स्वार्थ की हानि होती है। यदि हम ऐसा करना सीख सके, उसे अपने आचरण में ला सकें, तो हम आश्वस्त हो कर कह सकते हैं कि हम धर्म का आचरण कर रहे हैं।
    हमारे इस तरह क आचरण से किसी को कोई दुःख नहीं पहुंचेगा, और हम अनायास ही अधर्म आचरण से मुक्त हो जाएंगे, क्योंकि दूसरों को दुःख देना ही अधर्म है। यदि हम दूसरों को सुख देना, आनन्द देना, प्रियता देना सीख सकें तो निश्चय ही हमारा आचरण धर्मानुकूल होगा।
क्योंकि जीव मात्र को सुख देना ही धर्म है।


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