सम्पादकीय 15 मई

Posted on 15-May-2015 11:17 AM




जनरल हाॅस्पीटल उदयपुर का सर्जिकल वार्ड नंबर 11 बेड नंबर 9.............. हमेशा की तरह किसना जी आदिवासी से जाकर राम-राम की। अपनी जर्जर काया को साधते हुए उन्होंने राम-राम का जवाब दिया ही था कि उसी समय भोजन वितरण करने वाली हाॅस्पीटल की ट्रोली आ गई। मैंने थाली लेकर किसना जी को दी। उस गरीब बेसहारा ने एक रोटी खाई, और बाकी रोटी और सब्जी अपने जर्मन के कटोरे में रख दी। मैं अपनी उत्सुकता रोक नहीं सका। पूछ ही लिया, क्यों बा साहब ? आपरी भूख बन्द वेई री है (बा साहब, क्या आपकी भूख बन्द हो रही है ?) एक मिनट वे मौन रहे फिर रूंधे गले से बोले ”बावजी मने लेइन मारो बेटो व भाई आयोड़ा है। दो दिन वेइग्या पैसा बिल्कुल नी रिया, ये रोटियाँ वणारे लिए राखी है।“ (श्रीमान मुझे लेकर मेरा भाई व बेटा भी आये हुए हैं। दो दिन से पैसे बिल्कुल समाप्त हो गये हैं, ये रोटियाँ दोनों के लिए बचाकर रखी हैं।) एक मिनट मौन रहे.......... सहानुभूति मिलते ही उनके सब्र का बाँध टूट गया और 60 वर्षीय किसना जी भील फूट-फूट कर अपने दुर्भाग्य एवं बेबसी पर रोने लगे। आँखें गीली हो गई, एक विचार आया............ परिचित 5-7 घरों में खाली डिब्बे रख उनसे निवेदन किया कि जिस प्रकार से आप एक रोटी गाय की निकालते हैं, वैसे ही अपनी रोटी बनाने के पहले एक-दो मुट्ठी ऐसे लोगों के लिए भी निकाले जो दो-दो रातें भूखे गुजार लेते हैं, पर मांग सकते नहीं।  अपनी गरीबी पर मन मसोस कर रह जाते हैं - ये लोग।


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