सम्पादकीय 16 जुलाई

Posted on 16-Jul-2015 04:00 PM




कुछ वर्षो पहले की घटना है- बम्बई में रामदास नामक एक सज्जन नौकरी के पैसे लेकर घर लौट रहे थे। रामदास गृहस्थ थे। घर में छः आदमी थे। वे एक व्यापारी फर्म में ढाई सौ रूपये मासिक की नौकरी करते थे। कठिनता से खर्च चलता था। महीने की अन्तिम तारीख को जब वेतन के पैसे मिलते, तब वे महीने भर का अनाज, दूध, दवा, धोबी आदि का हिसाब चुकता करके आश्वस्त होते। आज रूपये लेकर जा रहे थे-रास्ते में उनके गाँव का एक परिचित आदमी मिला।
रामदास ने उसको उदास देखकर उदासी का कारण पूछा। वह रो पड़ा और बोला कि ‘मेरी स्त्री के पेट में फोड़ा होकर अब सेप्टिक हो गया है। वह मरणासन्न है।
डाॅक्टर ने आॅपरेशन के लिये कहा है, उसमें ढाई सौ रूपये का खर्च है, और मेरे पास एक पैसा भी नहीं है। स्त्री मर जायगी तो बच्चे अनाथ हो जायेंगे। क्या करूँ? कुछ समझ में नहीं आता’। रामदास ने तुरन्त जेब से ढाई सौ  रूपये निकाले और उसके हाथ पर रखते हुए कहा- ‘भाई! ले जाओ, तुरन्त आॅपरेशन की व्यवस्था करो।’ वह आदमी रामदास की स्थिति से परिचित था। उसके न तो रामदास से रूपये मिलने की कल्पना थी, न उसने उससे माँगे ही थे। उसने लेने से इनकार कर दिया, पर बड़ी विनय करके रामदास ने उसको रूपये लेने को बाध्य किया। घर आकर पत्नी को सब बातें कहीं तो वह साध्वी बड़ी प्रसन्न हुई। उसने पति के कार्य की प्रशंसा करते हुए अपने गले का हलका-सा सोने का हार उतारकर पति को दिया कि जाकर इसे अभी बेच आइये। किसी को पता न लगे कि ये अनाज-दूध के पैसे समय पर नहीं चुका सके। आज हम भी ऐसे कई दीन-हीन, निर्धन, असहायों का प्रत्यक्ष अनुभव हमारे जीवन में करते ही रहते हैं...तो क्यों न हम भी सेवा रूपी इन सुअवसरों को अपने हाथों में लेकर दीन-बन्धु का दर्जा हासिल करने का गौरव प्राप्त करें...... जो भी हमारे पास आवश्यकता से अधिक है उसका अंश मात्र भी निकालकर
किसी निराश्रित, अनाथ बालक के स्वर्णिम भविष्य के निमित्त बनें..... किसी बच्चे के धड़कते दिल के छेद को बन्द करवाकर उसके जीवनदाता बनने का सौभाग्य प्राप्त करें।


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