सम्पादकीय 17 जून

Posted on 17-Jun-2015 12:49 PM




नवयुवक सेठ की किराणें की दुकान, सामान से ठसा-ठस भरी पड़ी थी। एक बैल आया और गेहूँ की बोरी में मुंह मारा। हट्टे-कट्टे सेठ ने तत्काल लकड़ी उठाई और खदेड़ दिया उसे जोरों से। मार कुछ ज्यादा ही लगी उस पशु को।
दूर से नजारा देख कर सन्त ठठा कर हँस दिये। आश्चर्य चकित व जिज्ञासु शिष्य की शंका समाधान करते हुए बोले-”वत्स, यही बैल इस दुकान का मालिक व इसका पिता था। सन्तवाणी में यह कथा पढ़ी थी। कई प्रश्न मानस में तैरने लगते हैं- इतना मोह सांसारिक भोगों के प्रति इतनी कामनाएँ कि दूसरे जन्म में भी मन वहीं जाये बार-बार, हीरे जैसे जीवन को पत्थर की तरह गंवाया जाना।प्रभू ने बहुत कुछ दिया है प्रत्येक मानव को। मनुष्य योनि, हवा, श्वास, पानी, भोजन, मकान, पुत्रादिक, बुद्धि, वैभव, शक्ति, ज्ञान, चातुर्य, विवेक ................। मनुष्य के पास जो तराजू है न ? उसके एक पलड़े में यदि मिलने वाली चीजें रख दी जाय और दूसरे पलड़े में वास्तविक आवश्यकताएँ तो उपलब्ध सुविधाओं का पलड़ा बहुत झुकेगा, पर हाय रे मानव मन! जो मिला है उसके लिए तो प्रभू को धन्यवाद देते नहीं, और जो न मिला उसकी मांग मात्र चलती ही नहीं बढ़ती रहती है।
जब भी दो कम्बल ओढ़कर सोयें, प्रभू से प्रर्थना करें कि हे नाथ! एक कम्बल बक्ष तेरे उस बन्दे को भी जो अपने पैरों को पेट में सिकोड़ कर सोया है। हे प्रभू! पूर्ति तो आप ही करते हैं इस ब्रह्माण्ड की, पर ऐसी बुरी भावना, ऐसा कड़वा कर्म कि निमित्त बनने का सौभाग्य मिलें मुझे भी।


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