सम्पादकीय 20 मई

Posted on 20-May-2015 02:05 PM




एक नगर था। नगर में एक व्यक्ति फेरी लगाकर सामान बेचा करता और अपने बच्चों का पेट भरता। उसका नाम ‘सुजान’ था। सुजान हमेशा कहता था कि वह अपनी मेहनत, बुद्धि और भाग्य की खाता है, किसी की कृपा की नहीं। बात राजा तक पहुँची। राजा ने उसकी परीक्षा लेने की ठानी। राजा ने सुजान को द्वारपाल बना दिया। दिन भर पहनेदारी करने के बाद शाम होते-होते सुजान को अपने बच्चों के भोजन की फिक्र सताने लगी। उसने पास में पड़ी लकड़ी की एक टहनी को छीला और उसे तलवार की जगह म्यान में रख लिया। तलवार बेचकर उसने अपने बच्चांे के खाने का प्रबन्ध किया। राजा को यह बात पता चल गयी।
    दूसरे दिन राजा ने उस दरवाजे का निरीक्षण किया जहाँ सुजान पहरेदारी के लिए तैनात था। राजा ने अकारण ही एक सेवक को जोर से डाँट लगायी और सुजान से कहा, ‘इस सेवक का अपराध अक्षम्य है। अपनी तलवार निकालो और इसका सिर धड़ से अलग कर दो।‘ सुजान मन ही मन घबराया लेकिन उसने चतुराई से काम लिया और आसमान की ओर मुँह करते हुए बोला, ‘अगर यह सेवक बेकसूर है तो मेरी तलवार लकड़ी की हो जाये।’ उसने म्यान में से तुरन्त तलवार खींच ली। लकड़ी की तलवार देखकर सभी दरबारी इसे ईश्वरीय करामात समझकर अचम्भित रह गये। राजा को सब पता था। सुजान की चतुराई से प्रसन्न होकर कहा, ‘वाकई हम अपनी मेहनत, बुद्धि और भाग्य की ही खाते हैं, किसी की कृपा की नहीं।’


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