सम्पादकीय 21 मई

Posted on 21-May-2015 12:17 PM




पीडि़त, प्रताडि़त असहाय, रोगी और जरूरतमंद के लिए यदि सहायता का भाव आपके मन में है तो ईश्वरीय भक्ति भी उसमें सहायक हो जाती है। परमार्थ का कार्य में परमात्मा से जोड़ता है। उसकी कृपा सदैव मांगे और जब ऐसा पुण्य कार्य करेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि भी साफ सुनाई पड़ेंगी। 
दुनिया में अपना कुछ भी नहीं है। जो कुछ अपना दिखाई देता है, वह सम्बन्धों की वजह से है। जैसे ही हमारा रिश्ता किसी व्यक्ति या वस्तु से खत्म होता है।, वह पराया हो जाता है। लेकिन परमात्मा, जीवात्मा और प्रकृति न अपनी है-न पराई। ये सत्ताएं तो शाश्वत, अजर-अमर और लौकिक दायरों से ऊपर हैं। जब परमार्थ कार्यो के जरिये हम इनसे जुड़ते हैं, तो यह जुड़ाव लौकिक दुनिया के सम्बन्धों से एकदम अलग और अद्भूत होता है। जब हम उसे समर्पित करके कोई पुण्य कार्य करते हैं, तो वह ईश्वर की इच्छा से ही आगे बढ़ता और सफल होता है। धर्म के प्रति आस्थावान राजा रघु ने सर्वमेध यज्ञ किया जिसमें उन्होंने यज्ञ उके ब्रह्म कर्माे के एिल अपने पास जो कुछ भी था, दान कर दिया। सम्पत्ति के नाम पर मिट्टी का पात्र और कुश का आसन ही शेष था। ऋषि काॅत्स तक राजा की दानशीलता और यज्ञ का समाचार पहुँचा। वे भी यज्ञ स्थल पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि राजा तो सब कुछ दान कर चुके हैं। ऋषि ने ऐसी दशा में कुछ कहना उचित न समझा और निराश लौट गए। जब रघु को उनके आगमन की जानकारी मिली तो उन्होंने ऋषि को वापस बुलवाया और कहा- ‘आप यहां निवास करें जल्दी आपके अभीसिप्त धन का प्रबन्ध हो जाएगा।’ काॅत्स ठहर गए और रघु लक्ष्मी की प्रार्थना करने लगे। लक्ष्मी ने राजा की परमार्थ कामना को समझा और राज-कोष को विपुल धन से भर दिया। राजा ने उसमें से काॅत्स को अभिसिप्त दान देकर सन्तुष्ट किया।
जो व्यक्ति परमार्थ प्रयोजन करते हैं, वे अपूर्ण नहीं रहते। दैवी शक्तियां उनके कार्य में सहायक बन जाती हैं। बंधुओं ! राजा रघु की भांति जब हमारे मन में भी किसी की सहायता का भाव हिलोर ले तो अपनी सामथ्र्य के अनुसार उसकी मदद अवश्य करें । यदि सामथ्र्य नहीं है और भाव भी मन में हैं तो परमपिता परमात्मा से प्रार्थना करें और उसकी कृपा मांगे कि वह आपके मनों भाव अथवा स्वभाव के अनुसार अपके सद्कर्म में सहयोगी बनें। निश्चय ही आपकी प्रार्थना फलीभूत होगी। 


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