सम्पादकीय 23 मई

Posted on 23-May-2015 03:39 PM




एक धागे का साथ देने, मोम का रोम-रोम जलता है

इंसान वही जो दूसरे इंसान के काम आए। यूं कहने को तो पूरी दुनियाँ इंसानों से भरी पड़ी है, मगर यदि हममंे मानवीय संवेदनाएँ नहीं, तो फिर हम मानव कहलाने के अधिकारी कैसे ? हमारे घर में मोमबत्ती अवश्य पड़ी रहती है, जिसे हम बिजली गुल हो जाने पर अक्सर जलाया करते हैं। मोमबत्ती के भीतर एक धागा होता है, जो स्वयं जलकर हमें प्रकाश देता है। जब धागा जलता है तो मोम पिघलकर...... द्रवीभूत होकर उसका सम्पूर्ण साथ देते-देते अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। आखिर कितनी करुणा है बेजान धागे और निर्जीव मोम मंे..... अपने साथी रहे जलते धागे का साथ देने को मोम का रोम-रोम जल उठता है। फिर हम तो सजीव और प्राणी जगत के हिस्से हैं, हममें तो जिन्दा दिल धड़कता है। भला हम अपनी मानवीय संवेदनाएँ कैसे खो सकते हैं, इंसानियत को कैसे भूल सकते हैं ! करुणा और प्रेम से ही हमारे समाज एवं राष्ट्र में बड़े पैमाने पर भामाशाहों द्वारा दुःखियों, पीडि़तों, असहायों, वृद्धों, मासूम विकलांग बच्चों एवं निर्धन लाचारों की सेवा-सहायता हेतु दान-सहयोग दिया जा रहा है।
    दान देने वाले जिस भावना से दान देते हैं, वैसा ही फल उन्हें मिलता है। आध्यात्मिक महर्षियों ने मनुष्य के लिए दान की महत्ता अनेक कारणों से स्वीकार की है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस संसार में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है जिसके पास विवेक है। इस कारण वह अपनी आवश्यकताओं से अधिक संग्रह करता है। कुछ लोगों के अधिक संग्रह कर लेने से समाज का एक हिस्सा ऐसा भी रह जाता है जिनकी भौतिक उपलब्धियाँ कम रह जाती है। एक संग्रह करता है तो दूसरा अभाव झेलता है। इससे समाज में वैमनस्य का भाव भी फैलता है। यही कारण है कि अधिक धन वालों को हमेशा ही दान कर समाज में अपना प्रभाव बढ़ाने के साथ ही आध्यात्मिक शांति के साथ जीवन व्यतीत करने की राय दी जाती है। 


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