सम्पादकीय 24 जुलाई

Posted on 24-Jul-2015 03:37 PM




’’अब मैं स्वयं के लिए मर गया। में अपने पूर्व जीवन के सब अवगुणों से मुक्त हो,ऐहिक जीवन छोड़, धार्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए उद्यत हो गया हूँ।’’
श्री रामकृष्ण परमहंस के एक शिष्य अत्यन्त क्रोधी थे। छोटी-छोटी बात पर उनका क्रोध जाग्रत हो जाता था तथा एक बार क्रुद्ध होने पर देर तक बड़बड़ाते रहते थे। इसलिए लोग उन्हें छेड़ते रहते और वे दुःखी, उद्धिग्न और कुढ़ते हुए गालियाँ बकते रहते थे।
एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंस उन्हीं के पड़ौस में आकर ठहरे। उस भक्त की ऐसी दशा देखकर उन्होंने अपने अन्य शिष्यों के सामने उसका स्वभाव बदलने की इच्छा प्रकट की। इसी आशय से परमहंस जी ने उसे संन्यास देने का निश्चय किया। शिष्यों ने कहा, ’’ उसको सन्यास देना तो सन्यास-धर्म की विडम्बना है।’’ परन्तु श्रीरामकृष्ण परमहंस अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। शिष्य उसे बुला लाये और उसे सन्यास धर्म ग्रहण करने के लिए तैयार किया।
प्राचीन परिपाटी के अनुसार सन्यासी अपना श्राद्ध कर ऐसा संकल्प करता है कि ’’अब मैं स्वयं के लिए मर गया। मैं अपने पूर्व जीवन के सब अवगुणों से मुक्त हो, देहिक जीवन छोड़, धार्मिक तथा आध्यात्मिक जीवन बिताने के लिए उद्यत हो गया हूँ।’’ यज्ञ हुआ और उस शिष्य ने अपने पूर्वजों का श्राद्ध कर अपना भी श्राद्ध अपने ही हाथों किया और यही संकल्प दोहराया। दूसरे  दिन संन्यास वेश में जब वे गंगा-स्नान के लिए गए तो दुष्ट बालकों ने उन्हें कई प्रकार से तंग किया। पूजा के लिए एकत्र की गई सामग्री को बिखेर दिया पर वे  चुपचाप सामग्री इकट्ठी कर अविचल भाव से ध्यान में मग्न हो गए। 
इस आश्चर्यजनक परिवर्तन को देखकर शिष्यों के आश्चर्य का पारावार न रहा। संन्यास धर्म के संस्कार मन से ग्रहण करने के कारण ही यह परिवर्तन आया। सभी मनुष्यों में संस्कारों का ऐसा ही प्रभाव पड़ता है।


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