सम्पादकीय

Posted on 27-Apr-2015 05:53 PM




चक्रवर्ती राजा जनक की मखमली गदेेलों पर करवटें बदलते हुए झपकी लगी ही थी कि पड़ौसी देश के राजा ने संदेश भेजा - ”युद्ध के लिए तैयार हो जाओ अथवा अधीनता स्वीकार करो।“ युद्ध होना ही था, सो हुआ। राजा जनक बुरी तरह हारे। सब कुछ छोड़ कर भागे जा रहे हैं-भूखे प्यासे, शत्रुओं द्वारा पकड़े जाने का बड़ा भय, तीन दिन से अन्न का दाना नहीं गया पेट में। कपड़े तो तार-तार हो ही गये थे, लगा कि भूख के मारे प्राण भी साथ छोड़ देंगे। 
सामने नजर गई तो देखते हैं कि लम्बी सी लाइन लगी हुई है। सब के हाथों में कटोरे हैं। तख्ते पर बैठा हुआ व्यक्ति कड़ाह में से खिचड़ी निकालता है तथा एक-एक व्यक्ति के कटोरे में रख देता है। भूख के मारे राजा जनक लाइन में लग गये। दो घण्टे बाद जब नम्बर आया तो देखा कि मात्र थोड़ी सी ही खिचड़ी बची है। जैसे ही उनका नम्बर आया मात्र जली हुई खिचड़ी चिपकी रह गयी थी। बड़े करुन हृदय से बोले, सेठजी किसी तरह से यह जली हुई ही मुझे दे दो, भूख बहुत लगी है। ”जैसी तुम्हारी इच्छा“ कहते हुए मुनीमजी ने जली हुई परत के दो चम्मच फैले हुए दोनों हाथों पर रख दिये। काँपते हुए हाथ मुँह की तरफ बढ़े  ही थे कि कुत्ते ने झपट्टा मारा, जनक जी चित्कार उठे और उनकी चित्कार सुनते ही सुनयना जी ने घबराकर पूछा ”क्या हुआ महाराज“? आप नींद में चिल्लाये कैसे? ”विदेहराज तो चारों तरफ देखते जा रहे थे, दो ही प्रश्न बार-बार पूछ रहे थे अपने आप से। या तो यह सच, या वह सच? तथा भूख की इतनी व्याकुलता कैसे सहन हो?“
पहले प्रश्न का उत्तर तो अष्टावक्र जी महाराज ने भरी सभा में जनक जी को दिया था, परन्तु दूसरा प्रश्न अभी भी समाज के सामने उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा है। कुछ कहावतें हमने झूठी होती देखी - उनमें से एक यह भी कि ”भगवान भूखा उठाता है पर सुलाता नहीं।“ उन आदिवासियों के झौपड़े भी हमने देखे हैं जहाँ तीन-तीन दिन से चूलहे नहीं जले।
आइए, आप और हम भी ऐसे निराश्रित असहाय लोगोें की आँखों में झाँकने का प्रयास करें। हमारा हृदय इन प्रश्नों का उत्तर देगा- हमारी करुना जगेगी-प्रभु कृपा से।


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