न्याय

Posted on 29-Jun-2016 12:26 PM




न्याय को कोई मित्र एवं स्वजन नहीं होता और मित्रों के पक्ष में न्याय कभी विचलित भी नहीं होता। मित्रों को झुकता तौलना या किसी भी प्रकार की रियायत देना न्याय के स्वभाव में नहीं है। न्याय शुरू से ही रूखे स्वभाव का रहा है। न्याय जब कसौटी पर चढ़ता है तब उसकी मुस्कान समाप्त हो जाती है। गम्भीर चेहरा ही न्याय का वास्तविक स्वरूप है। न्यायाधीश की कलम की नोक विषधर के दाँत से कम खतरनाक नहीं होती, इसलिए नियुक्ति से पूर्व उसे शपथ दिलाई जाती है कि वह किसी निर्दोष पर आघात न करे अर्थात् अपने कत्र्तव्य के प्रति निष्ठावान बना रहे। हलाहल के बाहुल्य से तुरन्त मृत्यु हो जाती है और कम विष से निर्दोष घुल-घुल कर मरते हैं। सभी की तरह न्याय भी अपने कर्मों के लिए पूर्ण रूप में जिम्मेदार होता है। ईश्वर के न्यायालय में न्याय के लिए क्षमादान का विधान नहीं है और न ही उसे अच्छा जीवन जीने के लिए एक और मौका तथा विधि में किसी भी प्रकार की रियायत दी जाती है। काले कोट पर कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ता, इसलिए साधारणतया सिफारिशें बेअसर हो जाती हैं, लेकिन शपथ को भूल जाने वाले और सिद्धान्तों से हट जाने वालों के काले कोट पर लक्ष्मी का रंग चढ़ता हुआ सुना गया है, जो मानवीय गिरावट के वेग को बढ़ाता है और जिसे राष्ट्र के लिए कम दुर्भाग्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। शासन की आधारशिला न्याय पर ही स्थिर होती है। जब आधारशिला डगमगाने लगती है तब समझ लेना चाहिए कि बिना नींव का भवन बाढ़ का सामना नहीं कर सकेगा और वह मूसलाधार वर्षा में धराशाही हो जाने वाला है। किसी भी देश की सुव्यवस्था के लिए न्याय रीढ़ तुल्य है। रीढ़ पर बार-बार चोट करना जीवन पर चोट करने के समान है। लगातार की छोटी चोटों से भी जीवन समाप्त हो जाता है जबकि बड़ी मार्मिक चोट तो शुरू में ही अस्तित्त्व मिटा देती है। सत्य के बदले खोटी दमड़ियाँ पाप बढ़ाती हैं और व्यक्तित्व को समाप्त कर देती हैं, जो एक बहुत बड़े घाटे का सौदा है। माया की चमक में बहुत अधिक खतरे समाये हुए होते हैं, इसलिए मेरे आदरणीय बन्धु, किसी कभी निर्दोष की दुराशीष मत लेना और अपने कत्र्तव्य एवं राष्ट्र के प्रति पूर्णरूप से वफादार रहना तथा मानवता का भी सम्मान करना।


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