रैदास की कर्मनिष्ठा

Posted on 23-Jun-2015 11:52 AM




भक्त रैदास फटे जूते की सिलाई में ऐसे तल्लीन थे कि सामने कौन खड़ा है, इसका उन्हें भान भी न हुआ। आगंतुक भी कब तक प्रतीक्षा करता, उसने खाँस कर रैदास का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। रैदास ने दृष्टि ऊपर उठाई। सामने एक सज्जन थे। उन्हें देख वे हड़बड़ा कर खड़े हो गए और विनम्रतापूर्वक बोले, क्षमा करें, मेरा ध्यान काम में था।
उस व्यक्ति ने रैदास से कहा मैं तो अपने काम से आया हँ, अतः क्षमा का प्रश्न ही नहीं उठता ? मेरे पास पारस है। मैं कुछ आवश्यक कार्य से आगे जा रहा हूँ। कहीं खो न जाए, इसलिए इसे अपने पास रख लें। मैं शाम को लौटकर वापस ले लूंगा। इतना जरूर बता दूं कि पारस के स्पर्श से लोहा स्वर्ण में बदल जाता है। यदि तुम चाहो तो अपनी राँपी को इसका स्पर्श कराकर सोने की बना सकते हो। इसमें मुझे कोई आपत्ति न होगी। सोने को बेचकर तुम दैनिक जीवन के उपयोग की अन्य वस्तुएँ खरीद सकते हो। तुम्हें सड़क के किनारे बैठकर ऐसा छोटा और तुच्छ काम करने की आवश्यकता नहीं रहेगी। कोई अन्य व्यवसाय भी शुरू कर सकते हो।
यह सज्जन और कोई नहीं देवराज इन्द्र थे, जो लम्बे समय से रैैदास की भक्ति और निर्लोभी स्वभाव की चर्चा सुनते आ रहे थे। वे रैदास के दर्शन और उनकी भक्ति व स्वभाव की परीक्षा लेने के लिए वेश बदलकर उनके पास पहुंचे थे।
रैदास ने उनसे कहा आप पारस निःसंकोच छोड़ जायें। लेकिन इसके उपयोग की आपकी सलाह मैं स्वीकार करने में असमर्थ हूँ। क्योंकि यदि मेरी राँपी सोने की बन गई तो वह झटके से मुड़ जायगी वह दिन भर की मजदूरी से मैं वंचित रह जाऊँगा। मुझे न धन की कामना है और न ही अन्य व्यवसाय की। प्र्रभु कृपा से मैं अपने पैतृक व्यवसाय से पूर्णतः संतुष्ट हूं। इंद्र रैदास की कर्मनिष्ठा और जवाब को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्हें आशीर्वाद देकर लौट गए।
निहितार्थ: परिश्रम व आस्था से किया गया कार्य निरन्तर राम-नाम जपने से कई गुना लाभ देने वाला व ईश्वर प्राप्ति का सहज मार्ग है।


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