मानव का जीवन वृत

Posted on 21-May-2015 12:00 PM




मानव ने हर मानव के हित, अपने मन अपनत्व जगाया।
नहीं पराया कोई जग में, और अपना विश्वास जगाया।।
श्री गणेश सेवा का करने, बड़े चिकित्सालय नित जाना।
घर से बना रोटियाँ, सब्जी, बडे प्यार से उन्हें खिलाना।।
कभी आम, नारंगी देना, कदली फल का भाग लगाना।
नर रूपी रोगी नारायण, की सेवा का गीत गुंजाना।।
शासकीय सेवा में रहकर, जितना भी कुछ दाम कमाना।
श्रद्धा सहित उसी धन में से, अंश जरा सा खर्चा करना।।
यही भावना आगे चलकर, शाश्वत सेवा गंगा बन गई।
साधू मानव कुलाचार्य की, नारायण की पूजा बन गई।।
दुनिया देख रही थी सारी, ईश्वर नजर गढ़ाए रहता।
सेवा पथ के शूल और काँटे, ईश्वर सदा हटाता रहता।।
बाधा पर बाधाएं आती, लेकिन मानव चलता रहता।
बाधाओं को रोंद-रोंद कर, अपना लक्ष्य सुनिश्चित करता।।
चैराहे और गलियां आई, अपने और पराएं मिलते।
मानव के सेवा सपने पर, ताने देते थे और हंसते।।
ऊंचे नीचे धूप-छाव में, कभी थकान भी आ जाती थी।
दुनिया के कई रंग देखकर, कभी निराशा भी आती थी।।
कभी अंधेरा भी होता था, कभी लक्ष्य ओंझल होता था।
तब जुनून का दीपक जलता, और लक्ष्य सन्मुख होता था।
सभी समय के साथ-साथ में, दुनिया उनको समझ रही थी।
सेवा पथ की शीतल वायु, सबके मन में लहर रही थी।।


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