गोतम बुद्ध का मध्य मार्ग

Posted on 13-Jun-2016 11:11 AM




सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुंहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़े। वह राजगृह पहुंचे। वहां उसने भिक्षा मांगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुंचे। उनसे उसने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा, पर उससे उन्हें संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुंचंे और वहां पर तरह-तरह से तपस्या करने लगे। सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर कांटा हो गया। 6 साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई। एक दिन कुछ स्त्रियां किसी नगर से लौटती हुईं वहां से निकलीं, जहां सिद्धार्थ तपस्या कर रहे थे। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो/ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा/पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएं।’’ बात सिद्धार्थ को जंच गई। वह मान गये कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।


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