कपिलवस्तु का राजकुमार

Posted on 04-May-2015 02:46 PM




कपिलवस्तु यह श्रावस्ती का समकालीन नगर था। यहाँ पर शाक्य-राजा शुद्धोधन की राजधानी थी जो गौतम बुद्ध के पिता थे। परंपरा के अनुसार वहाँ कपिल मुनि ने तपस्या की, इसीलिये यह कपिलवस्तु (अर्थात् महर्षि कपिल का स्थान) नाम से प्रसिद्ध हो गया। नगर के चारों ओर एक परकोटा था जिसकी ऊँचाई अठारह हाथ थी। गौतम बुद्ध के काल में भारतवर्ष के समृद्धिशाली नगरों में इसकी गणना होती थी। यह उस समय तिजारती रास्तों पर पड़ता था। वहाँ से एक सीधा रास्ता वैशाली, पटना और राजगृह होते हुये पूरब की ओर निकल जाता था दूसरा रास्ता वहाँ से पश्चिम में श्रावस्ती की ओर जाता था। 

”तुम कंथक को यहीं रोको, यहाँ से मैं अकेला जाऊँगा, तुम मेरे राजसी वस्त्र और आभूषण लेकर कपिलवस्तु लौट जाओ।“ सिद्धार्थ ने कहा। उदास छन्ना सिद्धार्थ को वहीं छोड़ कपिलवस्तु चला आया।
29 वर्ष की आयु से सिद्धार्थ राज-पाट का सुख छोड़ कर सत्य की खोज में निकल गए। चलते-चलते गया के पास उरुबिल्व का वन उन्हें भा गया और वे वहीं तपस्या करने लगे। बहुत दिनों तक मात्र कंद-मूल फल ही उनका आहार था, फिर उन्होंने वह भी छोड़ दिया। उनका शरीर अति निर्बल हो गया, फिर भी वे तपस्या में लगे रहे।
एक दिन उनके निकट से साधुओं की एक टोली गाती-बजाती हुई जा रही थी। ”यहीं ठहर कर विश्राम कर लो, वीणा का स्वर बहुत बेसुरा हो गया है, शायद तार ढीले हो गए हैं, उन्हें भी कस लो।“ और वे साधु वहीं बैठ गए। तभी टन् की आवाज सिद्धार्थ के कानों में पड़ी।“ अरे! इतना क्यों खींच दिया तारों को कि टूट ही जाए? तार ढीला हो तो बेसुरा हो जाता है, और अधिक कस दिया जाए तो टूट जाता है, संतुलित रहे तभी संगीत का स्वर ठीक निकलता है।“ एक साधु ने दूसरे को समझाया। यह सुनकर सिद्धार्थ ने सोचा, ”भूखे-प्यासे रह कर शरीर को नष्ट कर तपस्या करना तार अधिक कसने जैसा ही है। मन की शक्ति और एकाग्रता के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है, और स्वस्थ शरीर के लिए भोजन अनिवार्य है।“
”प्रभु! कितने दिनों से आपने न कुछ खाया न पीया है। आज मैं आपके लिए खीर बना कर लाई हूँ, इसे ग्रहण करें।“ गडरिये की बेटी सुजाता खीर का कटोरा लिए खड़ी थी। सिद्धार्थ ने उसका आग्रह स्वीकार किया। निराहार, निर्बल शरीर भोजन पाकर शक्ति और ऊर्जा सेे भर उठा। ”अब जब तक दुःखों के कारण और उनसे मुक्ति का उपाय नहीं मिलता, मैं यहाँ से नहीं उठूँगा।“ इस प्रण के साथ वे समीप के पीपल के विशाल वृक्ष के नीचे एक बार फिर तपस्या में लीन हो गाए।
सात सप्ताह के बाद एक दिन अचानक उनका मन ज्ञान के प्रकाश से भर गया। कई दिनों  तक वे इस अद्भुत आनंद का सुख उठाते रहे। अब वे बुद्ध (ज्ञानी) हो गए थे।
’मैंने अज्ञान से मुक्ति पा ली, मुझे मोक्ष प्राप्त हो गया, लेकिन मेरा उद्देश्य तो तब पूरा होगा जब मैं अधिक -से-अधिक लोगों को यह सब समझा सकूँगा और उन्हें दुःखों से मुक्ति का मार्ग बता सकूँगा। इसके लिए लोगों के बीच जाना होगा।’ ऐसा सोचकर बुद्ध एक जगह से दूसरी जगह भ्रमण करने लगे और लोगों को संबोधित करने लगे।


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