श्री राम का कर्मक्षेत्र

Posted on 20-Apr-2015 03:50 PM




जो प्राप्ति, यानी कि राज्याभिषेक किसी भी व्यक्ति के जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि होती है, वही राम को बंधनकारी लग रही है। जंजीर, हथकड़ी, फिर चाहे वह सोने की ही क्यों न बनी हुई  हो, होती तो हथकड़ी ही है। राम राजसिंहासन को इसी रूप में देख रहे थेे। वे इसे इस रूप में ले रहे थे कि इसका अर्थ होगा जीवन की स्वाभाविक स्थितियों से विलग हो जाना। इसका अर्थ होगा- अपनी ही ज़मीन से, अपने ही लोगों से कट जाना। इसका अर्थ होगा-राजकीय विधि-विधानों में जकड़ जाना। उनकी परेशानी यह थी कि जिसकी पत्नी पृथ्वी हो, उसे मर्यादा में तो रखा जा सकता है, लेकिन गुलाम बनाकर, बन्धनों में जकड़कर  कैसे रखा जाए ? अयोध्याकाण्ड के 51वें दोहे में आप राम के इस रूप को देखंे-

लेकिन गुलाम बनाकर, बन्धनों में जकड़कर  कैसे रखा जाए ? अयोध्याकाण्ड के 51वें दोहे में आप राम के इस रूप को देखंे-
नव गयंदु रघुवीर मनु 
राजु अलानु समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि 
उर अनंदु अधिकान।।
सच मानिए तो राम के इस रूप पर, इस भाव पर सहज ही विश्वास करना थोड़ा कठिन हो जाता है। कवि लिखते हैं कि ’श्री रामचन्द्र जी का मन नए पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक  उस हाथी को बाँधने की काँटेदार लोहे की बेड़ी के समान है। वन जाना है, यह सुनकर अपने को बंधन से छूटा जान उनके हृदय में आनंद बढ़ गया।’
राम के मन की इस स्थिति मेें हमें व्यक्तित्व के विकास का एक अन्य सूत्र मिलता है और यह सूत्र है स्वतंत्रता का, बंधविहीनता का। लेकिन उस स्वतंत्रता या बंधनरहितता को सही तरीके से न समझने पर गड़बड़ी होने की पूरी-पूरी संभावना निकल आएगी। यहाँ राम ने जिसे बंधन माना है, वह किसी अनुशासन, किसी मर्यादा या नैतिक मूल्यों का बंधन नहीं है। जो स्वयं मर्यादापुरुषोत्तम कहलाये हों, वे मर्यादा को बंधन भला कैसे मान सकते हैं ? वे तो अपने आचरण से पुरानी मर्यादाओं को नए संदर्भों में परिभाषित कर रहे थे।उनके लिए जो सबसे बंधनकारी वस्तु थी, वह राजगद्दी थी, राजतिलक था। तभी तो उन्हें इसकी सूचना पाकर दुःख हुआ था। वे यह तो मानते थे कि राजसिंहासन आवश्यक है, क्योंकि इसी से समाज की व्यवस्था बनी रहती है। किसी न किसी को तो इस पर बैठना ही होगा, और अपने दायित्वों को निभाना भी होगा, क्यांेकि जिसके राज्य में प्रजा दुःखी रहती है, वह राजा निश्चित रूप से नर्क को प्राप्त होता है। इस प्रकार यह एक चैलेंज का पद है और राम को चैलेंज से कोई भय भी नहीं है। लेकिन इसकी एक सीमा तो है ही। सीमा यह है कि राजगद्दी पर बैठने के बाद आपके कार्यक्षेत्र की सीमा सिमटकर अपनी राजनीतिक बाउन्ड्रियों तक रह जाती है। जबकि राम की इच्छा ’बड़काजू’ की है। उन्हें केवल अपनी अयोध्या की प्रजा के लिए ही काम नहीं करना है, बल्कि इस धरती की प्रजा के लिए काम करना है। विश्वामित्र के साथ जाकर राम देख आए थे कि अयोध्या के बाहर के हालात क्या हैं ? हो सकता है कि यही कारण रहा हो कि राम ने सोचा कि यदि पृथ्वी के हित के लिए ही काम करना है, तो क्यों न पहले पृथ्वी की पुत्री यानी कि सीता का वरण किया जाए। सीता के, जनकसुता के वरण का मतलब केवल संतति प्राप्त करना नहीं था। बल्कि राम ने ऐसा करके एक प्रकार से पृथ्वी की रक्षा करने के दायित्व को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया था। 


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