काशी में गंगा तट पर बनी झोंपड़ी में रैदास अपनी पत्नी के साथ रहते और झोंपड़ी के बाहर बैठकर जीविकापार्जन हेतु जूते गाँठते थे। जो-कुछ मिल जाता, उसी से गुजर-बसर करने में उन्हें सन्तोष था। एक दिन एक साधु घूमते हुए रैदास के पास आया। उसने उनकी गरीबी देखकर झोली में से एक पत्थर निकाला और कहा-‘यह पार
एक मित्र आए और कहा - ’एक बहुत बड़े महात्मा आये हुए हैं, आप दर्शनार्थ चलेंगे ?’ मैंने कहा - ’वे बड़े महात्मा है, यह तुम्हें कैसे पता चला ?’ मित्र ने कहा- ’खुद जयपुर-महाराज उनके पैर छूते हैं।’ तो मैंने कहा-’इससे तो जयपुर-महाराज बड़े होते हैं, महात्मा तो बड़
एक बार स्व॰ लालबहादुर शास्त्री से उनके एक मित्र ने पूछा, ’शास्त्री जी, आप हमेशा प्रशंसा से दूर रहा करते हैं और आदर-सत्कार के कार्यक्रमों को टाला करते हैं। ऐसा क्यों?’ शास्त्री जी ने हँसकर जवाब दिया, ’मित्र! इसका यह कारण है कि एक बार लाल जी (लाला लाजपतराय) ने मुझ से कहा था
एक बार एक व्यक्ति को बेकार घूमते फिरते देखकर एक धनी व्यक्ति ने उसे अपने बाग की रखवाली करने का काम सौंपा तो वह राजी हो गया। वह व्यक्ति कई वर्षों तक मेहनत व ईमानदारी से काम करता रहा। एक बार धनी व्यक्ति के घर कुछ अतिथि आए। धनी व्यक्ति ने उस व्यक्ति को कुछ मीठे आम लाने को कहा। वह व्यक्ति आम उन
ंएक शिष्य अपने गुरु से बात करना चाहता था, उनसे बात करने से पहले ही उसकी अपनी पत्नी के साथ ग़लतफ़हमी हो जाती है। वह परेशान है। इस मानसिक स्थिति में वह गुरु के पास जाता है, दरवाजे़ को ठोकर मारता है अपनी हैट उतारता है, उसे फेंक देता है जूते उतारता है, उन्हें फेंक देता है। वह गुस्से से भरा है।
गुरु नानक एक बार घूमते-घूमते एक गाँव में ठहरे। वहाँ के लोगों ने सूब स्वागत किया, उपदेश सुने। सज्जनता की मूर्ति थे वे सब। नानक ने आशीर्वाद दिया-’उजड़ जाओ।’ दूसरे एक गाँव में गए। वहाँ के लोगों ने अपमानित किया। दुव्र्यवहार किया। नानक ने कहा-’आबाद रहो।’ शिष्यों के पूूछन
लाल बहादुर शास्त्री उन दिनों रेल विभाग में मंत्री थे। एक बार वे सरदार नगर में होने वाले एक सम्मेलन में जा रहे थे। रास्ते में जंगल पड़ता था। गौरी नाम के गाँव के पास कुछ लोगों ने उनकी मोटर रोकली और कहने लगे, ”एक गरीब किसान औरत की प्रसूति का समय निकट है। यदि उसे शीघ्र ही पास के शहर सरदार नगर प
एक साधु था, जो नियमित रूप से प्रवचन किया करता था। एक बार प्रवचन के अन्त में सृष्टि के प्रति आभारी होने की बात कह रहा थाः ”आभार की स्थिति से कार्य करें, कृतज्ञ होएं, यह हमारा प्रसार करेगा।“ एक भिखारी कोने में बैठकर उनके प्रवचन को सुन रहा था। प्रवचन के बाद वह साधु के पास आय
भीष्म पितामह शर-शैय्या पर सोए हुए युधिष्ठिर आदि को उपदेश दे रहे थे। द्रौपदी भी उन्हीं में उपस्थित थी। पितामह की बातें सुनते हुए द्रौपदी को अपने अपमान की वह स्थिति स्मरण हो आई जब कौरवों की भरी सभा में दुःशासन चीरहरण कर रहा था। भीष्म भी वहाँ उपस्थित थे। उसने मन ही मन सोचा कि पितामह का यह ज्ञान उस स
संघ के आचार्य के पास एक बार कुछ शिष्य पहुंचे। वे बहुत उत्साहित थे। उन्होंने आचार्य को बताया, हमने पूरे एक महीने तक मौन व्रत का पालन किया।इस दौरान चाहे जितनी परेशानी हुई, बाधाएं आयी, गड़बडि़यां हुई, पर हमने अपना मुंह नहीं खोला। संयम से मौन व्रत पर दृढ़ रहे। शिष्