नवयुवक सेठ की किराणें की दुकान, सामान से ठसा-ठस भरी पड़ी थी। एक बैल आया और गेहूँ की बोरी में मुंह मारा। हट्टे-कट्टे सेठ ने तत्काल लकड़ी उठाई और खदेड़ दिया उसे जोरों से। मार कुछ ज्यादा ही लगी उस पशु को। दूर से नजारा देख कर सन्त ठठा कर हँस दिये। आश्चर्य चकित व जिज्ञासु शिष्य की शंका समाधान क
इस दुनिया में दोनों ही तरह के लोग हैं - सफल और असफल लोग तथा विजयी और पराजित लोग। यह तो बताने की जरूरत नहीं है कि पराजित कोई नहीं होना चाहता, न ही कोई असफल होना चाहता है। इसके बावजूद कुछ लोग तो पराजित होते ही हैं, असफल होते ही हैं। क्या आपने इस बात पर कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता हैं। चलिए,
मनुष्य बहुत कुछ कामनाएँ रखता है। यह चाहिए, वह चाहिए पर जो कुछ वह चाहता है, उसमें से कितना पूरा होता है? शायद नहीं के बराबर। जो चाहें सो पाएं, वाली बात इसी कारण आश्चर्यजनक लग सकती है। भला यह कैसे संभव है? हम जो चाहें सो पाएँ-कैसे हो सकता है? अधिकांश इस पर विश्वास ही न करें, पर दुनिया के एक नहीं ला
काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। दूसरों की सेवा करना, असहाय को सहारा देना, मानवता की दृष्टि से बहुत बड़े काम हैं। आपकी सेवा से किसी को सुख मिलता है, आराम मिलता है, शान्ति मिलती है, तो यह ईश्वर की ही सेवा है, ईश्वर की ही पूजा है, क्योंकि जिस आत्मा को, जिस जीवन को आपकी सेवा से सुख मिलता है- वह जीवन,
एक धागे का साथ देने, मोम का रोम-रोम जलता है इंसान वही जो दूसरे इंसान के काम आए। यूं कहने को तो पूरी दुनियाँ इंसानों से भरी पड़ी है, मगर यदि हममंे मानवीय संवेदनाएँ नहीं, तो फिर हम मानव कहलाने के अधिकारी कैसे ? हमारे घर में मोमबत्ती अवश्य पड़ी रहती है, जिसे हम बिजली गुल हो जाने पर अक्सर ज
माँ ने बच्चे को भेजा, मिठाई लाने। बात पुराने जमाने की है न: सो उस समय कहा गया -’’देख बेेटा, फीकी मिठाई न ले आना, मिठी देखकर लाना। एक जगह नहीं तीन-तीन जगह। बच्चे ने कहा ’’नहीं-नहीं यह तो फीकी है।’’ चैेथा हलवाई बुद्धिमान था, - पूछा बेटा ’’मुन्ने मुँह
पीडि़त, प्रताडि़त असहाय, रोगी और जरूरतमंद के लिए यदि सहायता का भाव आपके मन में है तो ईश्वरीय भक्ति भी उसमें सहायक हो जाती है। परमार्थ का कार्य में परमात्मा से जोड़ता है। उसकी कृपा सदैव मांगे और जब ऐसा पुण्य कार्य करेंगे तो उसकी प्रतिध्वनि भी साफ सुनाई पड़ेंगी। दुनिया में अपना कुछ भी
एक नगर था। नगर में एक व्यक्ति फेरी लगाकर सामान बेचा करता और अपने बच्चों का पेट भरता। उसका नाम ‘सुजान’ था। सुजान हमेशा कहता था कि वह अपनी मेहनत, बुद्धि और भाग्य की खाता है, किसी की कृपा की नहीं। बात राजा तक पहुँची। राजा ने उसकी परीक्षा लेने की ठानी। राजा ने सुजान को द्वारपाल बना दिया।
जनरल हाॅस्पीटल उदयपुर का सर्जिकल वार्ड नंबर 11 बेड नंबर 9.............. हमेशा की तरह किसना जी आदिवासी से जाकर राम-राम की। अपनी जर्जर काया को साधते हुए उन्होंने राम-राम का जवाब दिया ही था कि उसी समय भोजन वितरण करने वाली हाॅस्पीटल की ट्रोली आ गई। मैंने थाली लेकर किसना जी को दी। उस गरीब बेसहारा ने ए
हमारे विभिन्न शास्त्रों के सूत्र, आचार्यो की सीख, सन्त-महात्माओं के सन्देश बार-बार इस बात पर बल देते है कि हमें सदा धर्म का आचरण करना चाहिए। तो, हमारे मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक ही है कि, धर्म क्या है ? धर्म का स्वरूप क्या है ? वैसे तो इन प्रश्नों का उत्तर सरल सहज बोधगम्य शब्दों में भी दिय