बन्धुवर, आप इन अनजान रोगियों के लिए दवाइयों का इतना खर्च कर रहे है ? इसकी प्रेरणा कहाँ से मिली आपको ? पराये दुःख से द्रवित होने वाले उन सज्जन ने, एक क्षण मेरी तरफ देखा, आँख डब डबा आई-उनकी। मेरे कन्धे पर हाथ रखा, और अतीत की यादों में खो गये। धीरे से बोले मेरा जीवन इन्हीं की धरोहर है। नहीं त
किसी शहर के बाजार में एक बड़ी दुकान पर मसनद पर बैठे सेठजी हिसाब-किताब देख रहे थे। भीषण गर्मी में दुकान की छत से लटका पंखा तेजी से घूम रहा था। इसी वक्त नंगे पांव, तन पर फटे वस्त्र, व्यक्ति उधर से गुजरा। किसी गांव से शायद वह मजदूरी के लिए शहर आया था। उसकी निगाह दुकान की ओर गई, जिसके एक कोने में पान
उन सभी भावनाओं में, जिन्हें आप अपने अन्दर पोस सकते हैं, करुणा की भावना सबसे कम उलझाने वाली और सबसे अधिक मुक्त करने वाली है। आप बिना करुणा के भी जी सकते हैं, लेकिन आपके अन्दर भावनाएं तो हैं ही। तो अपनी भावनाओं को किसी और चीज के बजाय करुणा में बदलना बेहतर होगा, क्योंकि हर दूसरी भावना में उलझ जाने क
समय अपनी गति से निरन्तर चल रहा है या यूं कहे कि वह तेज गति से भाग रहा है। निरंतर गतिमान इस समय के साथ कदम मिलाकर चलने पर ही मानव जीवन की सार्थकता है। इसके साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चलने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है। पिछड़ना सफलता से दूर हटना है, उसकी ओर गतिशील होना नहीं। जीवन में वही मनुष्य
मानव धर्म वह है, जो प्रत्येक प्राणी के आत्म-विकास में सहायक हो। एक मास तक निरन्तर उपवास करने वाले कोई एक-दो व्यक्ति होते हैं। समाधि लेने वाला कोई विरला भी होता है, अतः यह जन-जन का धर्म नहीं हो सकता। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह आदि महाव्रतों का पालन समूचा संसार नहीं कर सकता, लेकिन कुछ छोटी-छोटी बातों प
महात्मा बुद्ध के एक शिष्य ने राह चलते एक भिखारी को अपने पास बुलाकर उसे जीवन की निस्सारता का उपदेश दिया। परन्तु भिखारी कभी इधर देखता तो कभी उधर। जब शिष्य का उपदेश समाप्त हुआ तो वह भी अपनी राह चल पड़ा। शिष्य को बुरा लगा कि मधुर और प्रेरक उपदेश के बदले इस मूर्ख ने उसका आभार तक नहीं माना। शिष्य ने मह
सेवा सौदा नहीं है। सेवा अमृत स्नेह है। हम राम के वंशज हैं। आप और हमारा जन्म उस भारतभूमि में हुआ है जहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अवतार लिया। जिनके चरण कमलों की प्रार्थना करते हुए..... ऊँ भजमन चरण सुख दायी..... ऐसे भगवान राम के चरणों की कृपा आपको प्राप्
तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुं ओर। वशीकरन इक मंत्र है, तज दे वचन कठोर।। आज संसार नरक रूप हो गया है। वह किसलिए ? इसलिए न, क्योंकि ईष्र्या-द्वेष और घृणा की अँधियारी ने हमें चारों ओर से घेर लिया है, उसे चीर कर बाहर निकलने की हमारी शक्ति सो चुकी है। हमारे बहुत से दःुख केवल दूसरों के प
गंगा न किसी की जाति देखती है, न धर्म और न ही लिंग। महाकवि कालिदास के बाद संस्कृत साहित्य में अग्रगण्य कवि पंडितराज जगन्नाथ हैं। सत्रहवीं शताब्दी के चूडांत मनीषी पंडितराज जगन्नाथ की एक कथा प्रसिद्ध है कि जगन्नाथ ने मुस्लिम कन्या से विवाह किया। विवाह करके जब जगन्नाथ काशीस्थित अपने घर लौटे तो उनकी ज
रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- मोह सकल व्याधिन कर मूला। मन के रोगी की दशा तन के रोगी से अधिक कष्टपूर्ण होती है। ईष्र्या, द्वेष, शोक, भय, क्रोध तथा अहंकार आदि विकारों को मानस रोग कहा