एक-एक मुट्ठी आटा

Posted on 02-May-2015 11:18 AM




परहित कारण मांगते, मोहि न आवत लाज।।
    आटे के लिए डिब्बे घर घर में रखवा दिये गये थे और आटा एकत्रित करने की जिम्मेदारी मैनंे स्वयं अपने पास रखी। उन डिब्बो पर लिखा गया “दरिद्र नारायण सेवा” तो मेरी पत्नि कमला जी ने ऐतराज किया, नारायण कभी दरिद्र होता है क्या ? फिर दरिद्र शब्द को हटा दिया गया और इसी तरह इस सेवा पथ पर नारायण सेवा संस्थान अपनी सीढ़ीयां पार करता गया।
    आस्थावान लोग प्रतिदिन प्रतिदिन एक-एक मुट्ठि आटा सांझ सवेरे डालने लगे। बहुत से लोग तो कहते कि हम महिने भर का एक ही साथ डाल देंगे।
घन बरसे, सबसे धरा, धान उगे जग खाय।
यह सब सेवा भाव है, सेवा व्यर्थ न जाय।।
    एक दिन आटा इकट्ठा करने नहीं जा सके तो मेरी 13 वर्षीय पुत्री कल्पना जाने लगी और आटा एकत्रित कर ले आती। एक दिन रोती रोती, आंसू टपकाती घर आई और बोली -“अब मैं आटा लेने कभी नहीं जाऊंगी।” सुनकर मैं घबरा गया। पूछा-क्या बात हुई.... तो कहने लगी.... एक महिला अपनी पड़ोसन से कह रही थी कि पहले तो हम भिखारियों को देते थे और अब ये कौन आई है। कहते-कहते उस मासूम की रूलाई फूट पड़ी। क्या हम भिखारी है ? बच्ची की बात सुनकर मैं सर से पाँव तक सिहर उठा। फिर यकायक अपने को सम्भालते हुये बोला - आंखों के सामने किसना जी भील का दृश्य चलचित्र की तरह आ गया। पिता ने अपनी बेटी को अपने सेवा व्रत के बारे में बताया।
यही है सेवा कर्म महान।
गाँव गाँव में शिविर लगा कर, करवाया अन्नदान।
झोपडि़यों में रहने वाले, दूर दूर से आए।
झोली भर भर कर के ले जाए, चेहरे पर मुस्कान।।
दधिची ऋषि
देव और दानव युद्ध में, देव गये जब हार।
अस्थिदान दधिची कियो, कर सेवा उपकार।।
और उस हाथ की अस्थि से वज्र बनाया गया,
देव दानवों का फिर युद्ध हुआ, देवगणों को विजय श्री मिली।
परहित के लिये दी गई अस्थि का प्रभाव विजयश्री हुआ।


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