अभिमान का मूल कारण है अज्ञान

Posted on 26-Jul-2016 02:18 PM




एक बार एक सज्जन एक साहूकार की हवेली में गए। साहूकार का बहुत बड़ा कारोबार था। बड़ी - बड़ी फैक्ट्रियां और बड़ी जायदाद थीं। जब उस सज्जन ने परमार्थ की चर्चा करनी शुरू की तो साहूकार ने और बातें करनी शुरू कर दीं कि मेरी इतनी प्रोपर्टी है, मेरे इतने कारखाने हैं, मेरा तो इस शहर में बड़ा बोलबाला है, मुझे सब अच्छी तरह जानते हैं, सरकारी महकमों में भी मुझे जानते हैं, पुलिस डिपार्टमेंट में भी मुझे सभी जानते हैं। मेरी जायदाद इतनी है कि  और किसी के पास इतनी नहीं होगी। इस प्रकार वह अपनी धन - दौलत और कारखानों का जिक्र करता जा रहा था। वह सज्जन महात्मा सुनता रहा। महापुरूष तो सहनशीलता वाले होते हैं और विधि से काम लेते हैं। अभिमानी का अभिमान ताड़ने के लिए कठोरता ही नहीं, मुक्ति का भी सहारा लेने की जरूरत होती है। तब उस सज्जन ने मन - ही - मन कहा, ‘इस साहूकार के गुरूर को तोड़ना चाहिए और हकीकत इसकी आँखो के सामने लानी चाहिए। मुझे यह काम इस ढंग से करना चाहिए, जो वह ग्रहण भी कर सके और हजम भी कर सके।‘ उन दोनों के पास हीे मेज - कुर्सी लगाए उस साहूकार का बेटा भी पढ़ रहा था। सज्जन पुरूष ने उस बच्चे से कहा - ‘‘बेटा आप क्या पढ़ रहे हैं ? बच्चा बोला - ‘‘अंकल ! मैं भूगोल पढ़ रहा हूं।‘‘ सज्जन पुरूष ने पुनः पूछा - ‘‘बेटा वह तुम्हारे सामने क्या रखा है ?‘‘ बच्चा बोला - ‘‘अंकल ! यह एटलस है। इसमें दुनिया का नक्शा है।‘‘ सज्जन पुरूष ने एटलस ले लिया और बच्चे से बोले - ‘‘बेटे, इसमें तुम्हारा प्रदेश कहां हैं, हम भी तो देखें कहां पर है ? बच्चे ने उस खड़े नक्शे के एक छोटे - से हिस्से की ओर इशारा किया और बोला - ‘‘यह देखो, एक बेर जितना यह हमारा प्रदेश है।‘‘ सज्जन पुरूष ने फिर पूछा ‘‘बेटे, इसमें तुम्हारा नगर कहां है ?‘‘ बच्चा बोला - ‘‘यह देखो, यह जो छोटा - सा बिंदु नजर आ रहा है, यहा पर हमारा नगर है।‘‘ सज्जन पुरूष फिर बोला - ‘‘अच्छा बेटा, अब यह बताओ कि इस नगर में आपके पिताजी की फैक्ट्रियां कहां है और यह जो महल है, बताओ, यह सब कहां पर है ?‘‘ यह सुनकर बच्चा झुंझलाकर बोला - ‘‘आप अजीब बात करते है। इतनी बड़ी इस दुनिया मे नक्शे में, जहां इतना बड़ा नगर भी एक बिंदी जितना दिखाया गया है, आप इसमे हमारी फैक्ट्रियां और हमारे महल ढूंढ रहे हैं, बड़ी अजीब - सी बात करे हैं आप।‘‘ बच्चे की बात पर वह सज्जन हंस पङे। साहूकार भी उस सज्जन और अपने बेटे का वार्तालाप सुन रहा था। उनकी बातें सुनकर साहूकार को समझ आ गया कि मेरा ऐसा सोचना और मेरा हरदम यही कहना अर्थहीन है। इतनी बड़ी दुनिया का केवल नक्शा ही सामने आया है, जिसमें इतना विशाल नगर एक बिंदी के समान है। इस दाता की रचना में तो कितने - कितने सूर्य - मण्डल हैं, उनकी तो कोई थाह ही नहीं पाई जा सकती। मैं हूं ही क्या ? परमात्मा की प्रभुता का भान होते हीे उसका अंहकार भाग गया। उसे पता चल गया कि उसके पास ऐसा कुछ विशेष नहीं, जिस पर वह अभिमान कर सके। परमात्मा की सृष्टि में उसकी स्थिति एक तिनके से भी कम है। अभिमान का मूल कारण अज्ञान है। अज्ञान के कारण अंहकार और अंहकार के कारण झगड़े होते हैं। जिसने महापुरूषों के वचनों को सुनकर, उनके जीवन को देखकर प्रेरणा नही ली और अपनी ही तंगदिली और तंग दृष्टि में रहे, अभिमानी - अंहकारी बने रहे, आज उनके प्रति हमारे मन में कोई श्रद्धा कोई सत्कार की भावना नहीं है। और फिर इंसान अंहकार करे तो किसका ? आखिर उसके पास है क्या, जिस पर वह अभिमान करे।


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