ईश्वर की सेवा का तात्त्पर्य सुविधाहीनों की सेवा

Posted on 18-Jul-2015 04:02 PM




    विवेकानंद के रूप में प्रसिद्व, नरेन्द्र दत्त, ने रामकृष्ण मिशन की स्थापना यथा संभव अधिक से अधिक लोगों को वेदांत के मूल्यों को साझा करने और फैलाने के लिए तथा गुणवतापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य की देखभाल मिलने के लिए की थी।

    स्वामी विवेकानंद ने धर्म को एक नया अर्थ देने के बाद केंद्रीय चरण में लाकर पुनर्नवीन किया। उन्होंने अंतर-मन सद्भाव को प्रचारित किया। इस कारण उनकी शिक्षाएं बहुत प्रासंगिक है। विशेषकर वर्तमान संदर्भ में विवेकानंद के लिए, ईश्वर की सेवा का तात्पर्य सुविधाहीनों की सेवा से है। उन्होंने एक नये शब्द का आविष्कार किया, दरिद्र नारायण-गरीबों में ईश्वर को देखना- और वह एक धार्मिक सूक्ति में समर्थित हुआ। बुद्ध की तरह, विवेकानंद ने मानव आचरण में तार्किकता का प्रचार किया, जिससे कि धर्म बौद्धिक चेतनता और तार्किक सोच से जुड़ता है। कोई धर्म जो लोगों को बांटता है। शोषण को प्रोत्साहित करता है, और युद्धों को भड़काता है- न्यायोचित नहीं हो सकता।

    इस कारण उनका उदात्त धार्मिक मूल्यों का लिंक-उदासीन समर्थन था, जिसे उन्होंने मानव चेतना में सहायक माना। विवेकानंद के अनुसार, हमें घृणा को त्यागने और सबके लिए प्रेम और करूणा उत्पन्न करने की जरूरत होती है; केवल तब हम शांति और सद्भाव में रहने की शुरूआत कर सकते हैं। एकांतवासी जीवन संभव नहीं है। 

    विवेकानंद के लिए, वेदांत ब्राह्मणवाद या बौद्धवाद, ईसायत या इस्लाम नहीं था। 11सितंबर,1893 को शिकागो में धर्म संसद में स्वामी विवेकानंद ने निम्न रूप में स्पष्ट किया ईसाई एक हिंदू या बौद्ध नहीं बन जाता है, या एक हिन्दु या बौद्ध ईसाई नहीं बन जाता है प्रत्येक को दूसरे अध्यात्म को आत्मसात करना चाहिए और तथापि व्यक्तिगतता को संरक्षित रखना और उस अनुसार आगे बढ़ना चाहिए।

    परमहंस रामकृष्ण ने कहाः एक जातो मत, तातो पथ-अर्थात् जितने अधिक विचार, उतने अधिक रास्ते।


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