वृद्धजनों के प्रति युवाओं के कर्तव्य

Posted on 07-Aug-2015 03:15 PM




वृद्धावस्था में मानव-जीवन को अभिशाप न बनने देने एवं पारिवारिक सामंजस्य बनाये रखने हेतु कतिपय मननीय एवं करणीय बिन्दु -
1.    पारिवार के सभी सदस्य प्रतिदिन प्रातःकाल उठने के साथ ही अथवा स्नानोपरान्त वृद्ध माता-पिता, दादा-दादी तथा अपने से बड़ों के चरण-स्पर्श करते हुए उन्होंने नमन करें, प्रणाम करें। हमारी भारतीय संस्कृति के अनुसार दाहिने हाथ से दाहिने पैर का एवं बाँये हाथ से बाँये पैर का अँगूठा स्पर्श करते हुए उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने के साथ ऊर्जा भी प्राप्त करना न भूलें। ये पारम्परिक संस्कृति ही पारस्परिक प्रेम एवं अटूट बन्धन का प्रथम सोपान है।
2.    प्रतिदिन वृद्ध पुरुषों के साथ कुछ समय अवश्य व्यतीत करें, जिससे वे अपने-आपको उपेक्षित न समझें। वार्तालाप करें, खेलें, उनका समाचार जानें, हँसी-विनोद की बातें करें। हँसना स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इससे समरसता के साथ-साथ लाभान्वित होंगे।
3.    यथासम्भव इनके साथ प्रतिदिन प्रातःकाल एवं सायंकाल संध्या के समय आरती, भजन, संकीर्तन अवश्य करें। अद्भुत प्रकार के लाभ मिलेंगे।
4.    प्रतिदिन उनके सामथ्र्य एवं ऋतु के अनुसार उपयुक्त समय पर उन्हंे भ्रमण के लिये अवश्य ले जायें। मन्दिर जाने में ये काम दोहरा लाभ देगा। दर्शनलाभ के साथ-साथ शरीर की हलचल के कारण साधारण व्यायाम भी हो जायेगा।
5.    वृद्ध लोगों के सामथ्र्यानुसार उन्हें धार्मिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक कार्यों में प्रतिभागी बनाते रहें, जिससे वे अपने-आपको संसार से विलग न समझें और न अनुपयोगी ही। कभी-कभी धार्मिक आख्यान, कथा, कहानी सुनाने हेतु उन्हें अभिप्रेरित करें।
6.    सत्संग का अवसर मिलने पर परिवार के सदस्यों को इस प्रकार तालमेल बैठाना चाहिये, जिससे उनकी इच्छा एवं सामथ्र्य के अनुसार उन्हें नियमित रूप से वहाँ ले जायें, जहाँ कथा-वार्ता होती हों। अक्षमता की दशा में उन्हें अकेला न छोड़ें।
7.    श्रीमद्भगवद्गीता, रामायण तथा अन्य धार्मिक एवं आध्यात्मिक पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ उपलब्ध करवाकर उन्हें स्वाध्याय हेतु प्रेरित करें। उनकी असमर्थता की दशा में परिवार के किसी व्यक्ति द्वारा उन्हें श्रवण कराना चाहिये।
8.    अवस्था एवं शक्ति के अनुसार वर्ष में कम-से-कम एक बार उन्हें तीर्थ दर्शन हेतु अवश्य ले जायें तथा सप्ताह/माह में एक बार किसी धार्मिक स्थल पर अवश्य ले जायें।
9.    पराश्रित एवं वृद्धावस्था के कारण यथासम्भव आवश्यकतानुसार तन,मन,धन से उनकी सेवा-शुश्रूषा में कोई कसर न छोड़ें! अपने पर उन्हें भारस्वरूप न मानें, यथासम्भव उन्हें नौकर अथवा पड़ोसी के आश्रित न होने दें। उन्हें पूर्ववत् जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित करते रहें।
10.    प्रेम देकर प्रेम, शान्ति देकर शान्ति एवं मान देकर मान प्राप्त करें। घृणा देकर घृणा की ओर न बढ़ें।
11.    प्रेम एवं विश्वास के साथ नन्हें-मुन्नों को उनकी गोद में डालते रहें। कुछ समय पूर्वतक संयुक्त परिवार होने के फलस्वरूप बच्चे दादा-दादी के हाथों ही चलते रहे हैं और आज भी एकत्र/सीमित परिवार के साथ जीवन की भागदौड़ में उनकी वही उपयोगिता है, जो उन्हें व्यस्त भी रखेगी और पारिवारिक प्रेम से ओतप्रोत भी।
12.    सामयिक जाँच के अनुसार रुग्णावस्था मंें उनका यथाशीघ्र, यथाशक्ति, यथासमय उपयुक्त उपचार का अविलम्ब प्रबंध कर समय पर दवा देने का काम स्वयं अथवा परिवार में जो भी सदस्य प्रसन्नतापूर्वक इस दायित्व का तत्परता क साथ निर्वहण कर सके, उससे करवायें। अधिक अस्वस्थता की स्थिति मंे स्मरण-शक्ति का ह्नास होता है, अतः औषधि लेना उनके भरोसे न छोड़ें। अधिक रुग्णावस्था में उन्हें अकेला न छोड़ें। परिवार का कोई भी प्राणी उनके पास बना रहे।
13.    खान-पान, वस्त्र आदि में उनकी इच्छा का ध्यान रखें, पथ्यापथ्य के पूर्ण विचार के साथ उन्होंने भोजन, दूध, नाश्ता नियमित एवं निर्धारित समय पर देना अपेक्षित है। प्रत्येक बिना माँगे उनकी समुचित इच्छाओं की पूर्ति करने का प्रयास करें, इससे वे अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर आशीषों का पिटारा खोलते रहेंगे।
14.    भूलकर भी कटाक्ष एवं कटुतापूर्ण शब्दों का आदान-प्रदान कर उन्हें अतीत की ओर न धकेलें। दूखी न करें। अवस्थानुसार उनके स्वभाव का ध्यान रखकर शान्त रहें। उनके द्वारा पारिवारिक सामंजस्य की, आशा न रखते हुए परिवार के सभी सदस्यों की उनके साथ धैर्यपूर्वक सामंजस्य बनाना होगा।
15.    उनकी वैयक्तिक सम्पत्ति पर आपका ही अधिकार है, ऐसा मानकर भी वे उसका जैसे भी सदुपयोग करें, करने दें। दान-पुण्य करें तो करने दें। परिवार के किसी भी सदस्य अथवा बाहर के प्राणी, संस्था आदि को दें तो सहर्ष उनका सहयोग ही करें, विरोध नहीं करें। इस विचारधारा के साथ आप भी पुण्य के भागी होंगे तथा परिवार के सभी प्राणी अनावश्यक मनमुटाव से बच जायेंगे। यह सब कार्य कर्तव्य-बुद्धि से करें, कोई अहसान समझकर नहींें।


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