सम्पादकीय

Posted on 22-Apr-2015 03:50 PM




प्यास के मारे पाण्डवों के गले सूख रहे थे- कहीं पानी की उम्मीद नहीं थी। आकाश में उड़ते हुए पक्षियों की राह को देख कर युधिष्ठिर के मन में आशा की किरण जगी।
एक-एक कर सभी भाइयों को उस दिशा में भेजा गया- पानी के लिए। तालाब पर पहुँचने के बाद एक भी भाई वापस नहीं लौटा, तो युधिष्ठिर की चिन्ता और भी बढ़ गई, वे स्वयं चल दिए उस मार्ग की ओर।
तालाब पर पहुँच कर देखा तो सभी भाई मूर्छित अवस्था में पड़े थे। उन्होंने पानी पीना चाहा कि यक्ष की आवाज आई। हे पथिक! तुम पहले मेरे प्रश्नों का जवाब दो उसके बाद पानी पीने का हक में तुम्हें दूंगा। युधिष्ठिर ने विनम्र भावों से सहमति प्रदान कर प्रश्न पूछने के लिए निवेदन किया। यक्ष द्वारा पूछे गये सभी प्रश्नों के उत्तर दिये गये, उनमें से एक प्रश्न था- किम् आश्चर्यम्? अर्थात दुनियां में क्या आश्चर्य है? जवाब था- ‘‘दुनियां हमारे सामने हमेशा कालकलवित हो रही है। बड़े-बड़े राजा महाराजा, दिग्गज, वीर, सन्त एवं विश्व सम्राट कहे जाने वाले भी हमारी आँखों के सामने मृत्यु के ग्रास बन रहे हैं। आपाधापी के मार्ग से धन अर्जित किया जाकर संग्रह किया जाता है। धन का उपयोग ऐसे किया जा रहा है, जैसे हमारी मृत्यु होगी ही नहीं। मृत्यु के कगार पर खड़ा व्यक्ति भी भावी योजनाएँ संसार में रहने की इच्छा के साथ बनाता है। सबको मालूम है कि हमारे साथ जाने वाली एक वस्तु है-और वह है मात्र हमारे द्वारा दिया जाने वाला दान। फिर भी इसे अस्वीकार करते है- अपने वास्तविक जीवन में। यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।’’
यक्ष ने प्रसन्न होकर पानी पीने की आज्ञा दी। क्या हम भी इस आश्चर्य को जानेंगे?क्या हम भी ऐसे अवसरांे में मानवता को ही अपनायेंगे? कहीं हम निरर्थक संग्रह में तो नहीं लग गये?क्या हम यह तो नहीं सोच रहे हैं कि दान करने का अभी हमारा समय नहीं है? बहुत लम्बी उम्र पड़ी है-दान करने को, ऐसी कल्पना की बेडि़यों में तो अपने आप को नहीं बाँध रहें हैं- हम?
जी हां, मान्यवर, एक मामूली सा लकवा हमारे शरीर को पराधीन बना सकता है- नित्य कर्म के लिए भी हम किसी पर आश्रित हो सकते हैं। यदि वृद्धावस्था में दान करने का सोचे तेा हो सकता है उस समय तक हमारी आँखों की ज्योति नहीं रहे- जो प्रकृति के दुःखांे को देख सके। हमारे कान ऐसे क्षीण हो जाये जिससे हम दूसरांे की वेदना न सुन सकें। यह सब कुछ संभव है-इस क्षण भंगुर जीवन में। तो फिर क्यों रोकें सेवा के लिए बढ़ते हाथों को- क्यों दबा रहें है-अपने करूणा भावों को?किस लिए रो रहें हैं- इस पूँजी को?जो आज किसी को जीवन दे सकती है, किसी दुखिया का दुःख देखकर अगर हमारी करूणा उमड़ती है- हृदय रोता है, मन पसीजता है-तो दे डालिए जो अपने पास है- ताकि मृत्यु के बाद हमारा साथी बनकर दिया गया दान हमारे काम आ जाये। 


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