सम्पादकीय 02 जुलाई

Posted on 03-Jul-2015 12:14 PM




चाहे व्यक्ति हो या विश्व, कोई ऐसा नहीं है, जो शांति नहीं चाहता, लेकिन मुझे लगता है कि कोई ऐसा नहीं है, जो सचमुच में शांति चाहता है। शांति की इच्छा तो हर कोई रखता है, लेकिन इसे चाहता कोई नहीं है। हर कोई इससे बुरी तरह से घबराता है। इसे ग्रहण करके इसके साथ रहने का साहस किसी में नहीं है। इसके बावजूद हर कोई यही करता है कि उसे शांति चाहिए।

हम दार्शनिकों के पास जाते हैं। साधु-महात्माओं के पास जाते हैं। शिक्षक और तांत्रिकों के पास जाते हैं और उनके पाँवों पर अपना मस्तक रखकर गिड़गिड़ाते हैं कि ’हम क्या करें कि शांति मिले?’ ’हम क्या करें कि शांति मिले,’ अपने आप में ही विरोध से भरा हुआ वाक्य है। शांति करने से नहीं मिलती। शांति के लिए तो जरूरी है कि आप जो कर रहे हैं, उसे करना बन्द कर दें। कुछ न करने की प्रक्रिया में शांति निहित है, करने की प्रक्रिया में नहीं। जब हम कुछ करने की सोचेंगे, तो उस करने के दौरान अशांतियाँ उत्पन्न होंगी। शांति के लिए तो जरूरी है कि करना बंद कर दिया जाए और हम हैं कि अपने गुरू से पूछ रहे हैं कि ’हम क्या करें कि शांति मिले।’ यदि न करना ही शांति प्राप्त करने का तरीका है, तो क्या हम सचमुच न करने की स्थिति को स्वीकार करने को तैयार हैं? बिल्कुल भी नहीं। यहाँ न करने से मेरा तात्पर्य अकर्मण्यता से नहीं है। 

शांति के लिए एक बहुत प्यारा शब्द है-’अमन’। अमन का अर्थ ही है ’जहाँ’ मन न हो। जहाँ मन नहीं होगा, वहाँ शांति होगी और जहाँ मन होगा, वहाँ शांति नहीं रह सकती। ये दानों एक जगह बैठ ही नहीं सकते। जन्मजात विरोध है इन दोनों का और हम हैं कि इन दोनों को एक-साथ पाना चाहते हैं। तो फिर भला यह संभव कैसे होगा?

यदि कोई व्यक्ति सचमुच में शांति पाना चाहता है, तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे ऐसा करने से रोक नहीं सकती। यह कोई जमीन का टुकड़ा नहीं है, जिसका बिना मोल चुकाए आप पा नहीं सकते हैं।


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