सम्पादकीय 14 जुलाई

Posted on 16-Jul-2015 03:19 PM




धन क्या है? वस्तु ही तो है। उसका उपार्जनकरना, उपयोग करना यही जीवन है उसकी चिन्ता में जीवन को घुला देना कहां तक उचित है? 

एक बार एक बहुत बड़े धन कुबेर थे। उनके पास इतनी संपदा कि दोनों हाथों से लुटाए तो खत्म न हो। एक बार वे बीमार पड़ गए। भूख नही लगती थी। चिकित्सकों को उनमें कोई रोग नही दिखा, उपचार क्या करते?धनी मरणासन्न हो गए।

एक दिन मन में आया, नौकाविहार तो कर लें। सारी उम्र तो धनोपार्जन में ही बिता दी, उसका उपयोग तो किया ही नहीं। नौका में बैठे। नदी के मध्य पहुँचे। सहसा तूफान आया। नाव डगमगाने लगी। धनी सोचने लगे-”मैं इस नाव में न होता और नाव डूब जाती तो मेरा क्या जाता?मैं नाव में बैठा हूँ इसलिए डूबने का खतरा है। नाव अपने आप में तैरे या डूबे, इससे मेरा क्या बनता बिगड़ता है?यह तो नाव से मैंने अपने आप को जोड़ लिया है, इसीलिए नाव का डूबना मेरा भी डूबना है। इसी तरह मैने अपने को धन से जोड़ लिया है, इसीलिए नाव इसका डूबना मेरा डूबना है। अगर मैं ना रहूं यह धन ही रहे, तो मेरा नफा कहां है?इसका नुकसान मेरा नुसकान कहां है?और धनी व्यक्ति को ज्ञान मिल गया। धन क्या है, वस्तु मात्र।अब इसके लिए नफा और घाटा, इन शब्दों के अर्थ पहले जैसे नही रहे है। काम को मन लगा कर करना, जो होता है होता रहे। अगर उस दिन नदी में डूब जाते तो घाटा किसको होता, नफा किसको होता?जो उसके ना रहने पर होता ही नही, रहने पर क्यो होने लगा? धनी तब तक बीमार थे। जब तक उन को धन का नफा था, धन का घाटा उन का घाटा था। लेकिन अब वे निर्लिप्त हो गए। ”वस्तु” से ऊपर उठ गए। वस्तु जगत चले अपने नियमों से धनी का उससे क्या बनता बिगड़ता है।

क्या हमारा सोच इससे भिन्न हो सकता है?शायद नही।


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