सम्पादकीय 15 जुलाई

Posted on 16-Jul-2015 03:31 PM




मनुष्य उन वस्तुओं और व्यक्तियों के पीछे अहर्निश पागलों की तरह भाग रहा है, जो स्थायी रूप से उसके पास रहने वाली नहीं है। दुख इस बात का है कि इसे समझते-बूझते भी वह इससे आँख मूंदे हुए है। सब जानते हैं कि एक न एक दिन मरना है, किन्तु उस मरण को सुधारने का प्रयत्न नहीं करते। मनुष्य अच्छी-बुरी हर परिस्थिति में सत्य पथ पर अविचलित चलता रहे तो उसे जीवन में अपने - पराए का बोध और दुख कभी अनुभव भी नहीं होगा। इच्छाओं के पूर्ण न होने पर ही मनुष्य दुःखपूर्ण जीवन व्यतीत करता है।

जीवन के हर मोड़ पर लिये जाने वाले छोटे या बड़े निर्णयों का आधार हमारे उददेश्य पर निर्भर है, जहां उददेश्य नहीं वहां जीवन नहीं। यही बात हमारे ऋषि-मुनि, सन्त और शास्त्र भी कहते रहे हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि आखिर उददेश्य क्या हो और उसे निर्धारित कैसे करें ? इसका हमारे पुरखों ने बहुत सीधा- सादा उत्तर भी तलाशकर हमे दिया है और वह है- केवल यह जान लें कि “मैं कौन”, इस विषय में यदि हम जागरूक हो गए तो उददेश्य तो मिला ही, जीवन की कई समस्याओं का हल भी मिल जाता है। “मैं” से ऊपर उठकर हम सत्य को, वास्तविकता को स्वीकार करने लगेंगे तो सन्देह के सारे बादल छट जाएंगे।

हम अपने भीतर स्पष्टता और शुद्धता महसूस करने लगेंगे। यही समझ, शक्तिरूप, मार्गदर्शक बनकर हमें मानवता के लिए करूणा, दया, संवेदना और सम्भाव के साथ जीवन जीने के लिए सक्षम बनाएगी। तब प्राणी मात्र से स्नेह- प्यार हमारे लिए स्वाभाविक और अपरिहार्य हो जाएगा। जीवन मंे आनन्द की हिलोर उठेगी, समस्याओं के बन्धन टूट जाएंगे। जीवन उन्मुक्त हो उठेगा।


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