सम्पादकीय 22 मई

Posted on 22-May-2015 03:25 PM




माँ ने बच्चे को भेजा, मिठाई लाने। बात पुराने जमाने की है न: सो उस समय कहा गया -’’देख बेेटा, फीकी मिठाई न ले आना, मिठी देखकर लाना। एक जगह नहीं तीन-तीन जगह। बच्चे ने कहा ’’नहीं-नहीं यह तो फीकी है।’’ चैेथा हलवाई बुद्धिमान था, - पूछा बेटा ’’मुन्ने मुँह में कुछ रख तो नहीं रखा पहले से ?’’ और बच्चे के मुख से निकली ठंडाई की मीठी गोली, जिसे चूसता जा रहा था और चखता भी जा रहा था मिठाई।
आदरणीय महानुभावों, सन्त श्री के मुख से सुना है-’’स्वच्छ पानी से भरने के लिए अपने हृदय रूपी घड़े का गंदा पानी खाली तो कीजिये। कुछ पाने के लिए थोड़ा तो दीजिये।’’
जी हाँ, सत्संग रूपी जन हितकारी बातों को सन्तों ने नाना प्रकार से कहा है, कई तरीकांे से। कभी मीठे केप्सूल के खोल में कड़वी दवाई सरीखा - कभी कहानी में -कभी कविता में।
बार-बार मन में आता था, हमारे बच्चे भी ऋषि दधीचि का त्याग, राजा हरिशचन्द्र की सत्य निष्ठा, शबरी की प्रभु भक्ति जानना चाहते हैं, देखना चाहते हैं। किसी कोने से आवाज आती थी -’’अरे भाई आजकल किसको सुहाती है ये चीजें, परन्तु वाह! रामायण जो दिखाई जा चुकी और महाभारत जो देख रहे हैं, उनकी इस लोकप्रियता ने यह सिद्ध कर दिया कि मानव समाज की असली भूख है:-
अच्छाई-अच्छाई अच्छाई।
आइये, हम भी फूलों के बीज बिखरें-उस रेल यात्री की तरह जो यात्रा करते हुए खिड़की के बाहर बीज डालता हुआ प्रसन्न मन से सोच रहा था-कुछ तो उगेंगे। मैं नहीं तो क्या जो देखेगा वह तो राजी होगा ही।


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