सम्पादकीय

Posted on 24-Apr-2015 11:42 AM




आवागमन अबोध रूप से चल रहा था। सड़क के किनारे एक असहाय वृद्ध घायलावस्था में- प्रत्येक आने जाने वालों को याचना पूर्ण निगाहों से देख रहा था। लेकिन किसी ने वहाँ रूकने की हिम्मत नहीं उठाई। “यदि मैं यहां रूका तो लोग क्या समझेंगे ?क्या कहंगे ?”
अन्ततः एक कार वाले सज्जन ने उन्हें देखा, कार धीमी की और कुछ आगे जाकर रुक गए। उन्होंने सोचा - “और भी तो लोग इधर से आ - जा रहे हैं। मैं ही क्यों ?” लेकिन अन्तद्र्वन्द्ध चला - “उस वृद्ध को तत्काल सहायता की आवश्यकता है।”
“लेकिन मैंने कौनसा उसकी सहायता का ठेका ले रखा है।”
“कोई न कोई उसकी सहायता करेगा ही।”
“तो मैं क्यों फालतू का लफड़ा मोल लू - पुलिस, अस्पताल, कचहरी न जाने क्या हो।”
“लेकिन मानव ही मानव की सहायता नही करेगा तो कौन करेगा।”
“पर लोग क्या सोचेंगे - की मैं इतना बड़ा, और वह इतना छोटा...... और फिर कौनसा मुझे सोने का तमगा मिल जायगा।”
“पगले यह कार्य प्रमाणपत्र की लालसा में नहीं किया जाता है। और असली प्रमाणपत्र देने वाला है, उसके पास तुम्हारी पूरी फाइल है। यूं ही निकल गए तो उस फाइल में एक लाल निशान लग जायगा, दुसरी अवस्था में, उसमें स्वर्णाक्षरों से लिखा प्रमाणपत्र रख दिया जायगा।”
सज्जन ने कार पीछे की, वृद्ध के पास जाकर रूके और बोले - “चलो बाबा, मेरे साथ आओ।”
आइये, आप और हम भी प्रयास करें कि ऐसा कोई अवसर हाथ से न जाने पाए। और हां, बिना अन्तद्र्वन्द्वके।


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