थामें भागते मन की लगाम

Posted on 23-Apr-2015 03:12 PM




छुड़ाओ छुड़ाओ.....बीच तालाब में एक युवक ने पकड़ रखा है किसी को......चिल्ला रहा है, चिल्ला रहा है... रो-रोकर गुहार लगा रहा है। किनारे खड़े लोगों ने कहा छोड़ कम्बल को.....रोने जैसी आवाज आई। मैं तो छोड़ दूँ लेकिन यह कम्बल मुझे नहीं छोड़ता.......हकीकत में तालाब में नहा रहा था एक भालू......युवक ने समझा मुफ्त का कम्बल और चंचल मन ने उतार दिया तालाब में......चंचल मन की यही स्थिति.....यही पकड़ना......यही नहीं छुड़ा पाना अपने आप को। व्यक्ति के उत्थान और पतन में मन की बड़ी भूमिका होती है। हमें यह तो समझ ही लेना चाहिए कि अन्य जीवों से अलग और विशेष है मानव देह। जब यह अन्य प्राणियों से विशेष है तो इसकी सार्थकता का लक्ष्य भी स्पष्ट और विशेष है। इसकी पहचान के लिए अपनी जीवन-शक्ति का उपयोग करना होगा। दुनिया में जैसा व्यवहार चल रहा है, उससे तो नहीं लगता कि हम इस जीवन ऊर्जा का उपयोग कर रहे हैं। हमने अपने आपको मन के हवाले किया हुआ है और यह कहने भर को सिर्फ हमारा है लेकिन संचालित इसे दूसरे कर रहे हैं। कभी माँ के कहने पर चलता है, कभी पिता के। कभी मित्र के हाथ इसकी डोर होती है तो कभी रिश्तेदारी के दायरे में घूमने निकल पड़ता है। कभी इसे शिक्षक थपकी देता है तो कभी अधिकारी की झिड़की से यह शीतल हो जाता है। यदि जीवन को सार्थक करना है तो मन को इधर-उधर भटकने या किसी और के विचारों से तालमेल के लिए स्वतंत्र मत छोड़ो। लगाम हाथ से छूटने पर अनियंत्रित हुए अश्व से सवार चोट ही खा बैठता है। अतएव मन को स्वयं साधो। उससे अपने विचारों का मंथन करो। इससे जीवनी ऊर्जा का रूपान्तरण होगा। हमारे ऋषि-मुनियों ने कहा भी है कि बाहरी प्रकाश से केवल आँखें चुँधिया सकती है लेकिन भीतर से प्रस्फुटित प्रकाश से न सिर्फ जीवन बल्कि आसपास का वातावरण भी प्रकाशमय हो जाता है।


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