समाज के सुख में ही व्यक्ति का सुख

Posted on 06-May-2015 11:23 AM




महात्मा बुद्ध के एक शिष्य ने राह चलते एक भिखारी को अपने पास बुलाकर उसे जीवन की निस्सारता का उपदेश दिया। परन्तु भिखारी कभी इधर देखता तो कभी उधर। जब शिष्य का उपदेश समाप्त हुआ तो वह भी अपनी राह चल पड़ा। शिष्य को बुरा लगा कि मधुर और प्रेरक उपदेश के बदले इस मूर्ख ने उसका आभार तक नहीं माना। शिष्य ने महात्मा बुद्ध से भी इस प्रसंग की चर्चा की और भिखारी को मूर्ख कह दिया। बुद्ध ने शिष्य से उस भिखारी को तुरन्त बुलाने को कहा। कुछ ही देर में शिष्य दीन-हीन भिखारी को ले आया। बुद्ध ने सबसे पहले उसके सिर पर हाथ फेरा और अपने पास बिठाकर प्रेमपूर्वक भोजन करवाया और विदा कर दिया। शिष्य हैरान था कि गुरुदेव ने बिना उसे कुछ कहे ही क्यों भेज दिया ? बुद्ध हैरान, शिष्य की ओर देख मुस्कराए और बोले उसके लिए उपदेश से ज्यादा जरूरी भोजन था। शिष्य यह सुन निरूत्तर हो गया। वह भिखारी की नहीं अपनी मूर्खता पर शर्मिन्दा था। तात्पर्य यह कि समाज के सुखी होने में ही व्यक्ति का सुख निहित है। जब तक समाज में एक भी अशक्त, दीन-हीन और पीडि़त है, तब तक किसी को अपने इर्द-गिर्द सुख का अम्बार जुटा लेने का भ्रम भी नहीं पालना चाहिए। सुख-शांति इसी में है कि प्रभु प्रदत्त इस जीवन और जगत में अपने कत्र्तव्यों का ईमानदारी से पालन करते हुए दीन-दुःखी, पीडि़त और निराश्रितों के लिए भी कुछ करें। अपेक्षाओं से निकटता कटुता का कारण बनती है। जब हम अपने से कमजोर के लिए सेवा का भाव लेकर आगे बढ़ेंगे तो प्रभु कृपा से सुख-समृद्धि ही हमारे द्वार पर दस्तक देने लगेगी। जैसे लकड़ी मंे व्याप्त अग्नि नहीं दिखाई पड़ती, वैसे ही परमात्मा दिखाई नहीं देता। जबकि परमात्मा ही इस समस्त जगत को लीला से प्रकट कर स्वयं दृष्टि रूप से देखता है। इसीलिए श्रुति का भी यही कहना है कि ’न दृष्टे दृष्टार पश्ये’ अर्थात्-दृष्टि या दृश्य को नहीं, बल्कि दृष्टा को भी देखो, उसको जानो-समझो। वही आत्मा है, जो भीतर भी है और बाहर भी है। इस सूत्र के माध्यम से हमंे अपनी श्रद्धा व साधना को सशक्त बना अपने आत्मबल का निर्माण करके उसे अन्तस में आत्मसात करना होगा जो सामाजिक सुख, शान्ति एवं सफलता का मूलमंत्र है। अतएव भीतर के मंथन से जो कुछ प्राप्त हो, उससे प्रेरित होते हुए बाहरी जगत मंे जीएं। परम सन्तोष मिेलेगा और जीवन का कल्याण सुगम हो जायेगा।


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