स्वाद का पता कैसे चलता हैं?

Posted on 28-Apr-2015 11:44 AM




हमारे पास वस्तुओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए पांच ज्ञानेंद्रियां है- आंख, नाक, कान, त्वचा और जीभ। इनमें से जीभ हमें स्वाद का ज्ञान कराती है। जीभ मुँह के भीतर स्थित है। यह पीछे की ओर चैड़ी और आगे की ओर पतली होती है। यह मांसपेशियों की बनी होती है। इसका रंग लाल होता है। इसकी ऊपरी सतह को देखने पर हमें कुछ दानेदार उभार दिखाई देते हैं, जिन्हें स्वाद कलिकाएं कहते हैं। ये स्वाद कलिकाएं कोशिकाओं से बनी है। इनके ऊपरी सिरे से बाल के समान तंतु निकले होते हैं। ये स्वाद कलिकाएं चार प्रकार की होती है, जिनके द्वारा हमें चार प्रकार की मुख्य स्वादों का पता चलता है। मीठा, कड़वा, खट्टा और नमकीन। जीभ का आगे का भाग मीठे और नमकीन स्वाद का अनुभव कराता है। पीछे का भाग कड़वे स्वाद का और किनारे का भाग खट्टे स्वाद का अनुभव कराता है। जीभ का मध्य भाग किसी भी प्रकार के स्वाद का अनुभव नहीं कराता, क्योंकि इस स्थान पर स्वाद कलिकाएं प्रायः नहीं होती है।स्वाद का पता लगाने के लिए भोजन का कुछ अंश लार में घुल जाता है और स्वाद-कलिकाओं को सक्रिय कर देता है। खाद्य पदार्थों द्वारा भी एक रासायनिक क्रिया होती है, जिससे तंत्रिका आवेग पैदा हो जाते हैं। ये आवेग मस्तिष्क के स्वाद केंद्र तक पहुँचते हैं और स्वाद का अनुभव देने लगते हैं। इन्हीं आवेगों को पहचान कर हमारा मस्तिष्क हमें स्वाद का ज्ञान कराता है।
खाद्य पदार्थ का पूरी तरह स्वाद पाने में जीभ के अलावा अन्य ज्ञानेंद्रियां भी सहयोग देती है। गंध भी स्वाद का एक अंग है, जिसका अनुभव नाक से होता है। यही कारण है कि जुकाम हो जाने से भोजन का पूरा-पूरा स्वाद नहीं मिल पाता और वह फीका-फीका लगता है।
एक प्रौढ़ व्यक्ति की जीभ पर लगभग 9000 स्वाद कलिकाएं होती है। आयु के बढ़ने के साथ-साथ स्वाद कलिकाएं शिथिल होने लगती है और वृद्धावस्था मंे ये निष्क्रिय होने लगती है।
पेट की खराबी या कब्ज से जीभ पर मैल जम जाता है, जिससे हमें खाने का स्वाद बदला-बदला लगता है। वास्तव में जीभ पर मैल जम जाने के कारण खाद्य पदार्थों के अणु स्वाद कलिकाओं तक आसानी से पहुँच नहीं पाते, इसलिए हमें खाद्य पदार्थों का सही स्वाद नहीं मिल पाता। बुखार आने पर अथवा तेज गर्म या अधिक ठंडी चीजें खाने-पीने से भी स्वाद कलिकाएं कुछ शिथिल या निष्क्रिय हो जाती है और भोजन का पूरा-पूरा स्वाद हमें नहीं मिल पाता। शराब, कोको और फलों के रस का पता उनकी गंध से चल जाता है। इन रसांे के मुँह में पहुँचने पर जीभ को उनके स्वाद का पता लगता है। भोजन की गंध नाक के पिछले भाग में चली जाती है, जिससे वहाँ स्थित गंध-तंत्रिकाएं सक्रिय हो जाती है और मस्तिष्क को गंध की सूचना देती है, जिसे पहचान कर मस्तिष्क हमें भोजन के स्वाद का पूरा आनन्द प्राप्त कराता है।
शरीर की अन्य कोश्किाओं की तरह स्वाद कलिकाएं भी बराबर नष्ट होती और बनती रहती है। हर दस दिन में लगभग आधी नई स्वाद कलिकाएं पुरानी कलिकाओं का स्थान ले लेती है।


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