सागर के मोती

Posted on 09-Jul-2015 02:35 PM




भलाई स्वतःसिद्ध है, बुराई पकड़ी हुई है। साधक के भाव का दूसरे पर असर पड़ता है। जितना सदाचारी, सद्गुणी साधक  होगा, उतना ही उसका संकल्प सत्य होगा।  असर उस पर पड़ेगा, जो अपने को शरीर मानता है। कारण कि दोष शरीर में आते हैं। आप शरीर से असंग हो जाओ तो दूसरे की बुरी भावना आप पर असर नहीं करेगी। आकर्षण सजातीयता में होता है। आप में दोष होगा तो दोष को पकड़ेगा। रामजी पर खर-दूषणादि कइयों ने बुरी भावना की, पर उनपर कोई असर पड़ा नहीं। अन्तःकरण अशुद्ध होगा तो अवगुणों को जल्दी पकड़ेगा।

स्वतः काम में न आने वाली होने से रूपया सबसे र६ी चीज है । जो रूपयों को बड़ा मानता है, उसकी बुद्धिभ्रष्ट हो जाती है।
सदुपयोग किया जाय तो सभी वस्तुएँ श्रेष्ठ हो जाती हैं दुरूपयोग किया जय तो सभी वस्तुएँ निकृष्ट हो जाती हैं। रूपयों से स्वतन्त्रता नहीं होती, प्रत्युत महान् परतन्त्रता होती है। कारण कि रूपये आपके अधीन हैं, आपके कमाये हुए हैं। रूपयों से आपकी प्रतिष्ठा नहीं है, प्रत्युत फजीती है । आप की इज्जत जड़ के अधीन नहीं है। आप लखपति-करोड़पति होने में अपनी इज्जत मानते हो तो यह इज्जत आप को निर्धनों ने दी है, धनवानों ने नहीं। किसी गाँव में सभी लखपति हों, कोई निर्धन न हो तो क्या वहाँ लखपति की इज्जत होगी? इसी तरह मूर्खोके कारण ही विद्वान् की इज्जत है। हाँ, फर्क यह है कि धनवान् तो दूसरों को निर्धन बनाता है, पर विद्वान दूसरों मूर्ख नहीं बनाता !
आजकल न भगवान् का न प्रारब्ध का और न पुरूषार्थ का भरोसा है, प्रत्युत झूठ-कपट इष्ट हो गये! 
किसी व्यक्ति में दोष मत देखो। दोष स्वभाव में होता है, व्यक्ति में नहीं ।


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