क्या भूलूँ क्या - याद करूँ?

Posted on 04-May-2015 01:59 PM




पीडि़त करता पोलियो, बचपन से लग जाय।
दीन दुःखी के वास्ते, कुछ तो हम कर जाय।।
उस जमाने में एक रूपये के सोलह आने चलते थे। एक रूपये की एक सौ बावन पाई होती थी। चवन्नी अलग एक आना, दो आना, आठ आना, और फिर एक रूपया। मेरे ताउजी का नाम श्री देवीलाल जी अग्रवाल था। हमारी कपड़े की दूकान थी। लोग गाँवों से कपड़े लेने आते थे। उधारी भी होती थी। फिर वो पैसा हमें लेने जाना पड़ता था। ताउजी नेे मुझे एक पर्ची दी, उधार वालों से पैसा लाना था, गावों से, और मैं चला गया। सायंकाल तक वापस घर आ गया-दिन भर उधारी वसूल करने में गुजर गया। थकान भी महसूस हुई। इसी उधेड़बून में मेरे हाथों से एक पैसा कहीं गिर गया। तो मुझे बड़ा डर लगा कि अब तो ताउजी पिटाई करेंगे। यही सोच कर मैं अपने पिताजी के पास चला गया, और सब सच सच बता दिया। पिताजी ने प्यार से मुझे समझाया कि तूं ताउजी के पास हाथ जोड़ कर जाना, और सब कुछ सच-सच बता देना। हाँ नम्रता के साथ। माफी माँगना। वे जो भी क्रोध में कहे वो सुन लेना। वे दूकान छोड़ने को कहेंगे तो तंू दूकान से नीचे मत उतरना। फिर देखना वो तुझे प्यार भी करेंगे, और हुआ भी वही। कितना नुकसान कर दिया। लेकिन मैं चुपचाप बैठा रहा।
थोड़ी ही देर बाद जब क्रोध शान्त हुआ तो उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। चल रोना बन्द कर। आगे से ध्यान रखना। 
बचपन की वह सीख आज तक, 
मेरा निश्चय दृढ़ करती है।
सावधान करती है मुझ को,
जोश होश कायम रखती है।
माता-पिता के संस्कारों से,
बालक का जीवन बनता है।
बनो पुजारी मानवता के,
जन जन जिसकी पूजा करता है।
जिनका कोई आश्रय नहीं, 
उनका छात्रावास,
पढ़ लिख कर शिक्षित बने, 
नारायण है साथ।।
- ‘कैलाष ”मानव’’ पद्मश्री अलंकृत


Leave a Comment:

Login to write comments.