प्रेम और स्वीकार्य भाव

Posted on 13-May-2015 12:40 PM




ंएक शिष्य अपने गुरु से बात करना चाहता था, उनसे बात करने से पहले ही उसकी अपनी पत्नी के साथ ग़लतफ़हमी हो जाती है। वह परेशान है।
इस मानसिक स्थिति में वह गुरु के पास जाता है, दरवाजे़ को ठोकर मारता है अपनी हैट उतारता है, उसे फेंक देता है जूते उतारता है, उन्हें फेंक देता है। वह गुस्से से भरा है। फिर वह गुरु के पास जाता है और कहता है, ”हे प्रभो! मुझे शान्ति चाहिए, मुझे खुशी चाहिए।“
गुरु अपने शिष्य को देख रहे थे। ”पहले दरवाज़े के पास जाओ औेर उसे ठोकर मारने के लिए उससे क्षमा मांगो। अपने जूतों के पास जाकर दुव्र्यवहार करने के लिए क्षमा मांगो। तब आना, मैं तुम्हारे साथ शान्ति के बारे में बात करूंगा।“
जब शिष्य ने प्रेम से सब वस्तुओं से क्षमा मांग ली और गुरु के पास वापस आया, तो उस प्रेम ने शिष्य में एक परिवर्तन कर दिया था। प्रेम की उस दशा में वह शान्ति को  पा लेता है। कितनी सुन्दर कहानी है। यह बताती है कि निर्जीव वस्तुओं तक को यदि प्रेम और स्वीकार भाव से प्रयोग किया जाए, तो वे हमारी आन्तरिक शान्ति और सुख को बढ़ाते हैं।


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