अज्ञान से ज्ञान

Posted on 04-Jun-2016 11:44 AM




गौतम को ऐसी अनुभूति हुई जैसे हजारों योनियों के कारागार से मुक्ति मिल गई हो। इस कारागार का द्वारपाल था अज्ञान। इस अज्ञान के कारण ही उनका चित्ताकाश तिमिराच्छन्न था। ठीक वैसे ही जैसे झंझावात में सघन मेघों से चन्द्रमा और तारे छिप गए थे। अज्ञान में डूबे विचारों की असंख्य लहरों से वास्तविकता का सत्य, कत्र्ता और कर्म, स्व-पर, विद्यमानता तथा अविद्यमानता, जन्म और मरण तथा भ्रांत विचार से जन्म विभिन्न विभेदों में विभक्त हो गया था और भावनाओं, आकांक्षाओं, स्वार्थ-साधना और अहंमान्यता की कैद में फंस गया था। जन्म, जरा, रोग और मृत्यु ने उस कारागार की दीवारें और मोटी कर दी थीं। ऐसी अवस्था में यही किया जा सकता था, कि कारागार के द्वारपाल को पकड़ लिया जाए और उसका वास्तविक स्वरूप परख लिया जाए। यह द्वारपाल था अज्ञान। उस अज्ञान पर विजय पाने का साधन है पवित्र अष्टांगिक मार्ग। एक बार कारागार का द्वारपाल चला जाए तो वह कारागार ही ध्वस्त हो जाएगा और फिर वह कभी भी बाधक बन नहीं सकता। संन्यासी गौतम मुस्कराकर आत्मालाप करने लगे - ’’ओ कारागार के प्रहरी ! मैंने तुमको देख लिया है। कितनी योनियों से तुमने मुझे जन्म-मरण के कारागार में बंद रखा है। किन्तु अब मैंने तुम्हारा वास्तविक स्वरूप भली-भांति पहचान लिया है। अब इसके बाद तुम मेरे लिए और कारागारों का निर्माण नहीं कर सकोगे।’ सामने देखने पर, सिद्धार्थ ने देखा कि क्षितिज में भोर का तारा उदय हो चुका है जो विशाल हीरे की भांति दमक रहा था। उन्होंने पीपल वृक्ष के नीचे बैठकर भोर के इस तारे को अनेक बार देखा था किंतु आज प्रातः देखने पर प्रतीत हुआ कि जैसे वह उसे पहली बार ही देख रहे हैं। यह संबोधि-प्राप्ति की स्मृति के समान ऐसा जगमगा रहा था जिससे आंखे चुंधिया जाएं। सिद्धार्थ ने इस तारे को त्राटक दृष्टि से देखा और करूण भाव से कहा-’’समस्त प्राणियों के अंतराल में संबोधि के बीज छिपे हुए हैं, फिर भी, हम हजारों योनियों से जन्म-मरण के सागर में डूबते रहे हैं’’


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