महर्शि भृगु

Posted on 21-May-2015 11:56 AM




चाक्षुष मन्वंतर में इनकी सप्तर्षियों में गणना होती है। इन्हें भी ब्रह्माजी के मानस पुत्र तथा प्रजापति का स्थान प्राप्त है। पत्नी का नाम ‘ख्याति’ जो दक्ष पुत्री हैं। इस दंपत्ति से तीन संतानें हुई। पुत्र थे ‘धाता’ और ‘विधाता’ और पुत्री थी ‘श्री’। भगवान् नारायण के साथ ‘श्री’ का विवाह हुआ। इन तीन के अतिरिक्त और भी पुत्र हुए, जो विभिन्न मन्वंतरों में सप्तर्षि बने।
वाराहकल्प के दसवें द्वापर में महादेव ही भृगु बनकर जन्म लेते हैं। भृगु ऋषि स्वायम्भुव मन्वंतर में कहीं-कहीं सप्तर्षियों में से एक गिने जाते हैं। महर्षि च्यवन भी भृगु की ही संतान हैं। अनेक निःसंतान भृगु ऋषि के यज्ञों के कारण ही संतान पा सके। भृगु ऋषि दो महीने (श्रावण तथा भाद्रपद) में सूर्यदेव के रथ पर निवास किया करते है।
रोचक घटना
सरस्वती नदी के किनारे ... बहुत से ऋषि एकत्रित हुए। ब्रह्मा, विष्णु, महेश में कौन बडा? ऐसा छिड़ा विवाद। खूब वाद-विवाद हुआ, मगर ऋषिगण किसी परिणाम पर नहीं पहुंच पाए। महर्षि भृगु से, अपने तौर पर पता लगाने को सबने कह दिया।
निकल पड़े यात्रा पर भृगु जी! जा पहुंचे ब्रह्माजी के पास। मानसपुत्र होकर भी उनका अभिवादन नहीं, प्रणम नहीं, सत्कार नहीं। ब्रह्माजी जो भृगु की इस धृष्टता पर क्रोध जरूर आया, मगर उन्होंने इसे छिपा लिया। नासमझ है, ऐसा सोचकर क्षमा कर दिया। भृगु ऋषि अब जा पहुंचे रूद्रदेव के पास, कैलासपर्वत पर। माना जाता है कि महादेव (बडे़ भाई) और भृगु (छोटे भाई) थे। जब बड़ा भाई उठा और अपने छोटे भाई को प्रेमपूर्वक आलिंगन करने की सोची, तो छोटे ने बड़े का अपमान करते हुए कह दिया - ‘‘हटो पीछे! तुम तो उन्मार्गगामी हो। मैं तुम्हारे गले क्यों लगूं?’’ महादेव को ऐसा क्रोध आ गया कि वे त्रिशूल उठाकर भृगु का वध करने के लिए प्रहार करने ही वाले थे कि पार्वती ने उन्हें रोक लिया उनकी प्रार्थना की, क्रोध शांत किया। बच गए भृग महर्षि।
अब भृगु जा पहुंचे तीसरे देव के पास। भगवान् विष्णु के करीब, वैकुंठ में। सीधे भगवान के श्यनागार में प्रवेश किया भगवान् नींद में थे, लक्ष्मीजी उन्हें पंखा कर रही थीं। जाते ही भृगु महर्षि ने भगवान् की छाती पर लात दे मारी। अकारण ही वह तुरंत उठे। भृगु को देखा। उनके चरण पकड़ कर बोले - ‘‘कितने कोमल हैं ये। कहीं चोट तो नहीं लगी। वज्र-सी छाती पर प्रहार करने से पीड़ा तो हुई होगी। आपके आगमन की सूचना न होने पर आपके स्वागत के लिए नहीं आ पाया। प्रभु! क्षमा करें।’’ फिर बोले - ‘‘आपके चरणचिह्न मेरे वक्ष पर सदा बने रहेंगे, आपका आभारी हूं।’’
जब सभी महर्षियों की तीनों देवों की यात्रा का पता चला, तो उन्होंने भगवान विष्णु को ‘सर्वश्रेष्ठ देव’ मान लिया तथा उनकी पूजा करते रहने की व्यवस्था दे दी।

 


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