शरीर की नश्वरता

Posted on 28-Apr-2015 12:17 PM




युवराज भद्रबाहु अत्यन्त सुंदर थे। उन्हें इस सुंदरता का अत्यधिक अभिमान था। एक बार वह मंत्रीपुत्र सुकेश के साथ भ्रमण करने हेतु निकले। एक स्थान पर अंतिम संस्कार हो रहा था। राजकुमार ने कहा, “यह क्या हो रहा हैं ?” सुकेश ने कहा, “यहां मृत व्यक्ति का दाह संस्कार हो रहा है।” राजकुमार ने कहा, “अवश्य ही यह व्यक्ति कुरूप होगा।” सुकेश ने उत्तर दिया, “नहीं, मरने पर प्रत्येक व्यक्ति का शरीर सड़ने-गलने लगता है, इसलिए उसे जला देना पड़ता है।” यह सुनकर भद्रबाहु का सुंदरता का दर्प चूर-चूर हो गया और वह अत्यन्त उदास रहने लगा। राजा वह राजगुरु ने उसकी उदासी को दूर करने की बहुत कोशिश की, परन्तु कोई सफलता हाथ न लगी। 
    राजगुरु युवराज को अपने गुरु महाचार्य के पास ले गए। महाचार्य राजकुमार की खिन्नता को समझकर बोले, “तुम इस शरीर के अंतिम परिणाम की चिंता से व्यथित हो।” अपना दुःख पहचाने जाने पर राजकुमार ने उन पर अपनी सारी व्यथा उंडेल दी। महाचार्य बोले, “आज तुम जिस भवन के स्वामी हो यदि कल उसके जीर्ण होने पर तुम्हें अन्यत्र निवास करना पड़े और वह भवन नष्ट हो जाए तो इससे तुम्हारी जीवन यात्रा पर क्या कोई गंभीर प्रभाव पड़ेगा ?” राजकुमार ने उत्तर दिया, “नहीं, गुरुदेव!” महाचार्य बोले, “यही नियम शरीर पर भी लागू होता है। इसमें निवास करने वाली आत्मा इस शरीर के जीर्ण होने पर इसका त्याग कर देती है और यह शरीर नष्ट कर दिया जाता है। आत्मा के विकास हेतु यह शरीर उपकरण मात्र है, उसके लिए चिंतित मत होओ। अमर तो मात्र हमारे द्वारा किए गए शुभ अथवा अशुभ कर्मों के परिणाम होते हैं।” इन वचनों ने भद्रबाहु के ज्ञानचक्षु खोल दिए। उसे शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता का ज्ञान हो गया।


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