तप से अधिक महत्व है सत्संग का

Posted on 30-Jul-2016 11:46 AM




एक बार महर्षि वशिष्ठ महर्षि विश्वामित्र के आश्रम में गए। महर्षि विश्वामित्र ने वशिष्ठ का बड़ा स्वागत - सत्कार और आतिथ्य किया। जब वशिष्ठ जी चलने लगे तो विश्वामित्र ने उन्हें अपनी दस वर्ष की तपस्या का पुण्यफल उपहास्वरूप भेंट किया। बहुत दिनों बाद संयोगवश विश्वामित्र जी महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। उनका भी वैसा ही स्वागत - सत्कार हुआ। जब विश्वामित्र चलने लगे तो वशिष्ट जी ने उन्हे अपने एक दिन के सत्संग का पुण्यफल भेंट किया। विश्वामित्र यह सोचकर मन - ही - मन खिन्न हो गए कि उन्होंने तो अपनी दस वर्ष की तपस्या का पुण्यफल दिया था, जबकि वशिष्ट जी ने एक दिन के सत्संग का तुच्छ फल दिया। वे विचार करने लगे कि कहिं वशिष्ट जी की अनुदरता के पीछे मेरे प्रति तुच्छता का भाव तो नहीं है ? वशिष्ठ जी उनके इस हीन मनोभाव को ताड़ गए और उसका समाधान करने के लिए उन्हे साथ लेकर विश्व - भ्रमण पर निकल पड़े। चलते - चलते दोनों महर्षि वहां पहुंचे जहा शेषनाग जी अपने फन पर पुथ्वी का बोझ लादे बैठे थे। दोनो ऋषियों ने उन्हें प्रणाम किया व उनके समीप बैठ गए। तब उपयुक्त अवसर देखकर वशिष्ठ जी ने शेषनाग जीे से पूछा - ‘‘भगवान, दस वर्ष का तप अधिक मुल्यवान है या एक दिन का सत्संग ?‘‘ शेषनाग जी बोले -‘ ‘ऋषिवर, इसका समाधान वाणी से करने की अपेक्षा प्रयोग से करना ज्यादा ठीक रहेगा। मैं सिर पर इतना भार लिए बैठा हूं, जिसके पास तप - बल है, वह थोड़ी देर के लीए इस भार को अपने ऊपर ले ले।‘‘ विश्वामित्र जी का अपने तप बल पर अभिमान था। तप के उसी संचित बल के आघार पर उन्होंने पृथ्वी का बोझ अपने ऊपर लेने का प्रयास किया, लेकिन उठाना तो दूर, वे उसे हिला भी न सके। अब वशिष्ठ जी से कहा कि वे एक दिन के सत्संग - बल से पृथ्वी को उठाएं। वशिष्ठ जी ने यत्न किया और पृथ्वी का भार आसानी से अपने ऊपर उठा लिया। तब शेषनाग जी ने कहा - ‘‘ऋषिवर, निःसन्देह तप - बल की महत्ता बहुत है, लेकिन उसकी प्रेरणा और प्रगति का स्त्रोत सत्संग ही है। इसलिए उसकी महत्ता तप से अधिक है।‘‘ अब विष्वामित्र जी की समस्या का समाधान हो गया कि महर्षि वशिष्ट ने न तो कम मूल्य की वस्तु भेंट की और न ही उनका तिरस्कार किया। सत्संग से तप की प्रेरणा मिलती है। इसलिये सत्संग को तप से अधिक महत्व दिया गया है।


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